© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
धनिया लेटी है अपनी खाट पर
देख रही है सुंदर सपना
सोच रही है इस दुनिया में
कोई तो होगा अपना,
वो खुश है आज, बहुत खुश
क्योंकि कुछ ही महीनों के बाद
वो बनने वाली है माँ
उसके मन में
माँ बनने की उमंग है
दिल में ममता की तरंग है,
सोच रही है
मेरे जैसी होगी मेरी बेटी
जो घूमेगी घर के आँगन में
रुनझुन-रुनझुन,
जो बोलेगी
अपनी तोतली बोली में
और कहेगी ‘माँ जला छुन
जब मेली छादी होदी न
सुंदल-सा दूल्हा आएदा
मैं दोली में बैठतल
अपनी छुछराल चली जाऊँदी !
पर माँ लोना नईं
जब तू बुलाएगी ना
मैं झत से दौलतल
तेरे पास चली आऊँगी
या फिल तुझे बुला लूँदी अपने पाछ !’
धनिया खुश थी मन ही मन
उसके दिल में
प्रसन्नता की हिलोरें उठ रही थीं
उसने पहले ही सोच लिया था
कि अपनी चाँद-सी बेटी को
पढ़ना सिखाऊँगी,
लिखना सिखाऊँगी
और उससे खत लिखवाऊँगी,
फिर मैं अपने मन की बात को
अपनी अम्मा और बापू तक
पहुँचा सकूँगी !
इन्हीं विचारों में उलझी
धनिया बड़ी बेसब्री से
सुबह होने का
कर रही थी इंतज़ार
सोच रही थी बारंबार
कल जब अल्ट्रासाउंड की
रिपोर्ट आएगी घर पर
तो खुश होंगे
मेरे साथ-साथ सभी परिवारी-जन
करेंगे इंतज़ार
नन्ही-सी परी के आने का !
पास-पड़ौस के सभी लोग
देने आएँगे बधाई
मेरे माँ-बापू भी मनाएँगे उत्सव
गाए जाएँगे मंगलगीत
मिलेगी मुझे सबकी प्रीत !
अपनी परी का नाम
रखूँगी चमेली जो बड़ी होकर बनेगी
अनोखी, अलबेली
रक्षाबंधन के दिन
भैया की सूनी कलाई पर
बाँधेगी राखी
भैया भी उसको
देगा रक्षा का वचन !
मेरे सपनों की परी
जब और बड़ी होगी
तो घर के कामों में
बटाएगी मेरा हाथ
मेरे थकने पर प्यार से
मेरा सिर सहलाएगी,
अपने दादी-बाबा की
वो बनेगी लाडली
घर में बनेगी सबकी दुलारी
दोपहर को खेत पर
अपने बापू के लिए
लेकर जाएगी रोटी
तब मेरे बुझे मन को
और थके तन को
मिलेगा थोड़ा-सा आराम
मुझे मिलेगा मेरा खोया हुआ
अपना ही सुंदर नाम !
यही सोचते-सोचते धनिया
न जाने कब सो गई
मीठे-मीठे सपनों में खो गई
मुँह अँधेरे ही वो उठकर बैठ गई
जब उठी तो थी बहुत
उल्लसित और प्रफुल्लित,
जल्दी-जल्दी कर रही थी
घर के सारे काम
कामों से निपटकर
वह बैठी ही थी
कि अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट लेकर
उसका पति मुँह लटकाए आया
समझ नहीं आ रहा था
उसकी उदासी का राज़
पूछने पर उसने बताया
‘रिपोर्ट नहीं है अच्छी’
सभी थे चिंतामग्न
सभी थे परेशान
अनहोनी की आशंका से
सब तरफ थी खामोशी ,चुप्पी
और सभी कर रहे थे इंतज़ार
रिपोर्ट को जानने का !
छाई हुई खामोशी को तोड़ते हुए
धनिया का पति बोला ¬–
‘ रिपोर्ट में तो लड़की बताई है ‘
घर के सभी सदस्यों ने
ठंडी साँस ली और बोले-
‘ इसमें चिंता की क्या बात है
अब तो हमारे देश ने
बड़ी उन्नति कर ली है ‘
घर के बुजुर्ग बोले-
‘ चिंता मतकर
डॉक्टर से मिलकर
इस आफत से मुक्ति पा लेंगे
इस बार नहीं
तो कोई बात नहीं
अगली बार
घर का चिराग पा लेंगे !’
पर किसी ने
उस माँ के दिल की पीड़ा को
न समझा, न जाना
न उसकी मन:स्थिति को पहचाना !
वह बुझी-सी, टूटी-सी
उठकर चली गई अंदर
और बहाती रही आँसू
वह अपने मन की टीस को
किसी से बाँट भी तो नहीं सकती
अपने मन की बात
किसी से कह भी तो नहीं सकती
कहेगी तो सुनेगा कौन
इसीलिए तो वो है मौन !
धनिया की आँखें निरंतर
बरस रही थीं झर-झर
मानो कह रही हों, सुनो,
समाज के कर्णधारो ! सुनो
समाज के सुधारको सुनो,
बेटों के चाहको सुनो न !
मेरा तो बस यही है कहना
ऐसे सोच को समाज के
दिलो-दिमाग से पूरी तरह
निकालकर फेंक दो न !
और उन सबको समझाओ
जो बेटी नहीं, चाहते हैं बेटा !
यदि देश में इसी तरह
सताई जाती रहेंगी बेटियाँ
होती होती रहेंगी भ्रूण हत्याएँ
तो एकदिन ऐसा आएगा
जब हमारे चारों ओर
होंगे केवल बेटे-ही-बेटे
दु:ख-दर्द को मिटाने वाली
बेटियाँ कहीं दूर तक
नज़र नहीं आएँगीं,
और एकदिन ऐसा आएगा
जब पुरुष रह जाएगा अकेला
अच्छा नहीं लगेगा
उसे दुनिया का मेला,
और फिर वह अकेले ही अकेले
ढोएगा जीवन का ठेला !
डॉ. मीना अग्रवाल
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
Saturday, May 29, 2010
Friday, May 21, 2010
मेरा होना या न होना
आज पढिये मुक्ति कि कविता
मेरा होना या न होना
मैं तभी भली थी
जब नहीं था मालूम मुझे
कि मेरे होने से
कुछ फर्क पड़ता है दुनिया को
कि मेरा होना, नहीं है
सिर्फ औरों के लिए
अपने लिए भी है.
मैं जी रही थी
अपने कड़वे अतीत,
कुछ सुन्दर यादों,
कुछ लिजलिजे अनुभवों के साथ
चल रही थी
सदियों से मेरे लिए बनायी गयी राह पर
बस चल रही थी ...
रास्ते में मिले कुछ अपने जैसे लोग
पढ़ने को मिलीं कुछ किताबें
कुछ बहसें , कुछ तर्क-वितर्क
और अचानक ...
अपने होने का एहसास हुआ
अब ...
मैं परेशान हूँ
हर उस बात से जो
मेरे होने की राह में रुकावट है...
हर वो औरत परेशान है
जो जान चुकी है कि वो है
पर, नहीं हो पा रही है अपनी सी
हर वो किताब ...
हर वो विचार ...
हर वो तर्क ...
दोषी है उन औरतों का
जिन्होंने जान लिया है अपने होने को
कि उन्हें होना कुछ और था
और... कुछ और बना दिया गया ..
जब नहीं था मालूम मुझे
कि मेरे होने से
कुछ फर्क पड़ता है दुनिया को
कि मेरा होना, नहीं है
सिर्फ औरों के लिए
अपने लिए भी है.
मैं जी रही थी
अपने कड़वे अतीत,
कुछ सुन्दर यादों,
कुछ लिजलिजे अनुभवों के साथ
चल रही थी
सदियों से मेरे लिए बनायी गयी राह पर
बस चल रही थी ...
रास्ते में मिले कुछ अपने जैसे लोग
पढ़ने को मिलीं कुछ किताबें
कुछ बहसें , कुछ तर्क-वितर्क
और अचानक ...
अपने होने का एहसास हुआ
अब ...
मैं परेशान हूँ
हर उस बात से जो
मेरे होने की राह में रुकावट है...
हर वो औरत परेशान है
जो जान चुकी है कि वो है
पर, नहीं हो पा रही है अपनी सी
हर वो किताब ...
हर वो विचार ...
हर वो तर्क ...
दोषी है उन औरतों का
जिन्होंने जान लिया है अपने होने को
कि उन्हें होना कुछ और था
और... कुछ और बना दिया गया ..
Tuesday, May 18, 2010
मन बाबरे
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
आज मन ने
मेरी बात मानी है
आज समझा है वह,
नहीं गँवाएगा समय
व्यर्थ की बातें सोचने में,
जीवन में ऐसा तो
चलता ही रहता है
मतभेद, विवाद,
अतिवाद, या फिर....
यही तो है जीवन !
अब मुझे विगत बातों को
कभी नहीं सोचना
कुछ करना है ऐसा
जो समाज में
बने मिसाल,
बने नई पहचान !
इसलिए मन बावरे
तू आज मेरी बात को
ध्यान से सुन
और गुन
मत हो परेशान
बनाकर रख
अपना सम्मान !
यह तू जान ले
कि जो डरता है
दूसरों की ताकत से
वही डराता भी है दूसरों को !
इसलिए तू डर मत
निर्भय होकर
आगे बढ़
ऊँचाइयाँ चढ़
अनुभव की झालर में
नव जीवन गढ़ !
डॉ. मीना अग्रवाल
आज मन ने
मेरी बात मानी है
आज समझा है वह,
नहीं गँवाएगा समय
व्यर्थ की बातें सोचने में,
जीवन में ऐसा तो
चलता ही रहता है
मतभेद, विवाद,
अतिवाद, या फिर....
यही तो है जीवन !
अब मुझे विगत बातों को
कभी नहीं सोचना
कुछ करना है ऐसा
जो समाज में
बने मिसाल,
बने नई पहचान !
इसलिए मन बावरे
तू आज मेरी बात को
ध्यान से सुन
और गुन
मत हो परेशान
बनाकर रख
अपना सम्मान !
यह तू जान ले
कि जो डरता है
दूसरों की ताकत से
वही डराता भी है दूसरों को !
इसलिए तू डर मत
निर्भय होकर
आगे बढ़
ऊँचाइयाँ चढ़
अनुभव की झालर में
नव जीवन गढ़ !
डॉ. मीना अग्रवाल
Sunday, May 16, 2010
मौन
मेरे मौन को तुम मत कुरेदो !
यह मौन जिसे मैंने धारण किया है
दरअसल मेरा कम और
तुम्हारा ही रक्षा कवच अधिक है !
इसे ऐसे ही अछूता रहने दो
वरना जिस दिन भी
इस अभेद्य कवच को
तुम बेधना चाहोगे
मेरे मन की प्रत्यंचा से
छूटने को आतुर
उलाहनों उपालम्भों
आरोपों प्रत्यारोपों के
तीक्ष्ण बाणों की बौछार
तुम सह नहीं पाओगे !
मेरे मौन के इस परदे को
ऐसे ही पड़ा रहने दो
दरअसल यह पर्दा
मेरी बदसूरती के
अप्रिय प्रसंगों से कहीं अधिक
तुम्हारी मानसिक विपन्नता की
उन बदरंग तस्वीरों को छुपाता है
जो अगर उजागर हो गयीं
तो तुम्हारी कलई खुल जायेगी
और तुम उसे भी कहाँ
बर्दाश्त कर पाओगे !
मेरे मौन के इस उद्दाम आवेग को
मेरे मन की इस
छिद्रविहीन सुदृढ़ थैली में
इसी तरह निरुद्ध रहने दो
वगरना जिस भी किसी दिन
इसका मुँह खुल जाएगा
मेरे आँसुओं की प्रगल्भ,
निर्बाध, तूफानी बाढ़
मर्यादा के सारे तट बंधों को
तोड़ती बह निकलेगी
और उसके साथ तुम्हारे
भूत भविष्य वर्त्तमान
सब बह जायेंगे और
शेष रह जाएगा
विध्वंस की कथा सुनाता
एक विप्लवकारी सन्नाटा
जो समय की धरा पर
ऐसे बदसूरत निशाँ छोड़ जाएगा
जिन्हें किसी भी अमृत वृष्टि से
धोया नहीं जा सकेगा !
इसीलिये कहती हूँ
मेरा यह मौन
मेरा कम और तुम्हारा
रक्षा कवच अधिक है
इसे तुम ना कुरेदो
तो ही अच्छा है !
साधना वैद
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यह मौन जिसे मैंने धारण किया है
दरअसल मेरा कम और
तुम्हारा ही रक्षा कवच अधिक है !
इसे ऐसे ही अछूता रहने दो
वरना जिस दिन भी
इस अभेद्य कवच को
तुम बेधना चाहोगे
मेरे मन की प्रत्यंचा से
छूटने को आतुर
उलाहनों उपालम्भों
आरोपों प्रत्यारोपों के
तीक्ष्ण बाणों की बौछार
तुम सह नहीं पाओगे !
मेरे मौन के इस परदे को
ऐसे ही पड़ा रहने दो
दरअसल यह पर्दा
मेरी बदसूरती के
अप्रिय प्रसंगों से कहीं अधिक
तुम्हारी मानसिक विपन्नता की
उन बदरंग तस्वीरों को छुपाता है
जो अगर उजागर हो गयीं
तो तुम्हारी कलई खुल जायेगी
और तुम उसे भी कहाँ
बर्दाश्त कर पाओगे !
मेरे मौन के इस उद्दाम आवेग को
मेरे मन की इस
छिद्रविहीन सुदृढ़ थैली में
इसी तरह निरुद्ध रहने दो
वगरना जिस भी किसी दिन
इसका मुँह खुल जाएगा
मेरे आँसुओं की प्रगल्भ,
निर्बाध, तूफानी बाढ़
मर्यादा के सारे तट बंधों को
तोड़ती बह निकलेगी
और उसके साथ तुम्हारे
भूत भविष्य वर्त्तमान
सब बह जायेंगे और
शेष रह जाएगा
विध्वंस की कथा सुनाता
एक विप्लवकारी सन्नाटा
जो समय की धरा पर
ऐसे बदसूरत निशाँ छोड़ जाएगा
जिन्हें किसी भी अमृत वृष्टि से
धोया नहीं जा सकेगा !
इसीलिये कहती हूँ
मेरा यह मौन
मेरा कम और तुम्हारा
रक्षा कवच अधिक है
इसे तुम ना कुरेदो
तो ही अच्छा है !
साधना वैद
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Tuesday, May 11, 2010
कितनी बार...
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कितनी बार...
कितनी बार तुम मुझे अहसास कराते रहोगे
कि मेरी अहमियत तुम्हारे घर में,
तुम्हारे जीवन में
मात्र एक मेज़ या कुर्सी की ही है
जिसे ज़रूरत के अनुसार
कभी तुम बैठक में,
कभी रसोई में तो कभी
अपने निजी कमरे में
इस्तेमाल करने के लिए
सजा देते हो
और इस्तेमाल के बाद
यह भी भूल जाते हो कि
वह छाया में पड़ी है या धूप में !
कितनी बार तुम मुझे याद दिलाओगे
कि मैं तुम्हारे जीवन में
एक अनुत्पादक इकाई हूँ
इसलिए मुझे कैसी भी
छोटी या बड़ी इच्छा पालने का
या कैसा भी अहम या साधारण
फैसला लेने का
कोई हक नहीं है
ये सारे सर्वाधिकार केवल
तुम्हारे लिए सुरक्षित हैं
क्योंकि घर में धन कमा कर
तो तुम ही लाते हो !
कितनी बार तुम मुझे याद दिलाओगे
कि हमारे साझे जीवन में
मेरी हिस्सेदारी सिर्फ सर झुका कर
उन दायित्वों को ओढ़ने
और निभाने की है
जो मेरे चाहे अनचाहे
तुमने मुझ पर थोपे हैं,
और तुम्हारी हिस्सेदारी
सिर्फ ऐसे दायित्वों की सूची को
नित नया विस्तार देने की है
जिनके निर्वहन में
तुम्हारी भागीदारी शून्य होती है
केवल इसलिए
क्योंकि तुम ‘पति’ हो !
साधना वैद
कितनी बार...
कितनी बार तुम मुझे अहसास कराते रहोगे
कि मेरी अहमियत तुम्हारे घर में,
तुम्हारे जीवन में
मात्र एक मेज़ या कुर्सी की ही है
जिसे ज़रूरत के अनुसार
कभी तुम बैठक में,
कभी रसोई में तो कभी
अपने निजी कमरे में
इस्तेमाल करने के लिए
सजा देते हो
और इस्तेमाल के बाद
यह भी भूल जाते हो कि
वह छाया में पड़ी है या धूप में !
कितनी बार तुम मुझे याद दिलाओगे
कि मैं तुम्हारे जीवन में
एक अनुत्पादक इकाई हूँ
इसलिए मुझे कैसी भी
छोटी या बड़ी इच्छा पालने का
या कैसा भी अहम या साधारण
फैसला लेने का
कोई हक नहीं है
ये सारे सर्वाधिकार केवल
तुम्हारे लिए सुरक्षित हैं
क्योंकि घर में धन कमा कर
तो तुम ही लाते हो !
कितनी बार तुम मुझे याद दिलाओगे
कि हमारे साझे जीवन में
मेरी हिस्सेदारी सिर्फ सर झुका कर
उन दायित्वों को ओढ़ने
और निभाने की है
जो मेरे चाहे अनचाहे
तुमने मुझ पर थोपे हैं,
और तुम्हारी हिस्सेदारी
सिर्फ ऐसे दायित्वों की सूची को
नित नया विस्तार देने की है
जिनके निर्वहन में
तुम्हारी भागीदारी शून्य होती है
केवल इसलिए
क्योंकि तुम ‘पति’ हो !
साधना वैद
Monday, May 10, 2010
माँ के लिए ..........जागरण से
लबो पे जिसके कभी बद्दुआ नहीं होती
वो माँ है जो कभी खफा नहीं होती
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है
वो माँ है जो कभी खफा नहीं होती
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है
Sunday, May 9, 2010
मातृ दिवस ना मनाये
मातृ दिवस पर
माँ को करते हैं सलाम
और मातृ दिवस पर ही
कहीं किसी बेटी को करते हैं हलाल
जब भी कहीं कोई बेटी मरती हैं
एक माँ को भी तो आप ख़तम करते हैं
एक बच्चे का ममत्व आप छिनते हैं
आज से कुछ और साल बाद
शायद ना कोई माँ होगी
और ना ही होगी कोई संतान
मातृ दिवस ना मनाये
ऐसी परम्पराए क्यूँ बनाये
जिनेह आगे चल कर
ख़तम ही होना हैं
चलिये मानते हैं
ऑनर किल्लिंग दिवस
कन्या भुंण ह्त्या दिवस
दहेज के नाम पर जलती बहु - दिवस
क्या रखा हैं
मातृ दिवस मे
बालिका दिवस मे
जब मन मे स्नेह नहीं
बेटी के लिये
केवल सम्पत्ति हैं बेटी
कभी अपने घर तो
कभी ससराल
उसका मरना निश्चित हैं
दिवस बस अनिश्चित हैं
सो करिये घोषणा
कब मारेगे अपनी बेटी को
कुछ जश्न फिर नया हो
अजन्मी बेटियों , और्नर किल्लिंग के नाम पर मारी जाती बेटियों और दहेज़ के लोभ मे जलाई जाती बहुओ को समर्पित । अरुशी और निरुपमा की याद मे
और हाँ पोस्ट समाज से संबंधित है माँ पिता भाई बहिन सास ससुर से नहीं वैसे समाज मे और कौन होता हैं ??
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
माँ को करते हैं सलाम
और मातृ दिवस पर ही
कहीं किसी बेटी को करते हैं हलाल
जब भी कहीं कोई बेटी मरती हैं
एक माँ को भी तो आप ख़तम करते हैं
एक बच्चे का ममत्व आप छिनते हैं
आज से कुछ और साल बाद
शायद ना कोई माँ होगी
और ना ही होगी कोई संतान
मातृ दिवस ना मनाये
ऐसी परम्पराए क्यूँ बनाये
जिनेह आगे चल कर
ख़तम ही होना हैं
चलिये मानते हैं
ऑनर किल्लिंग दिवस
कन्या भुंण ह्त्या दिवस
दहेज के नाम पर जलती बहु - दिवस
क्या रखा हैं
मातृ दिवस मे
बालिका दिवस मे
जब मन मे स्नेह नहीं
बेटी के लिये
केवल सम्पत्ति हैं बेटी
कभी अपने घर तो
कभी ससराल
उसका मरना निश्चित हैं
दिवस बस अनिश्चित हैं
सो करिये घोषणा
कब मारेगे अपनी बेटी को
कुछ जश्न फिर नया हो
अजन्मी बेटियों , और्नर किल्लिंग के नाम पर मारी जाती बेटियों और दहेज़ के लोभ मे जलाई जाती बहुओ को समर्पित । अरुशी और निरुपमा की याद मे
और हाँ पोस्ट समाज से संबंधित है माँ पिता भाई बहिन सास ससुर से नहीं वैसे समाज मे और कौन होता हैं ??
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Thursday, May 6, 2010
टुकड़ा टुकड़ा आसमान
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
अपने सपनों को नई ऊँचाई देने के लिये
मैंने बड़े जतन से टुकड़ा टुकडा आसमान जोडा था
तुमने परवान चढ़ने से पहले ही मेरे पंख
क्यों कतर दिये माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने भविष्य को खूबसूरत रंगों से चित्रित करने के लिये
मैने क़तरा क़तरा रंगों को संचित कर
एक मोहक तस्वीर बनानी चाही थी
तुमने तस्वीर पूरी होने से पहले ही
उसे पोंछ क्यों डाला माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने जीवन को सुख सौरभ से सुवासित करने के लिये
मैंने ज़र्रा ज़र्रा ज़मीन जोड़
सुगन्धित सुमनों के बीज बोये थे
तुमने उन्हें अंकुरित होने से पहले ही
समूल उखाड़ कर फेंक क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने नीरस जीवन की शुष्कता को मिटाने के लिये
मैंने बूँद बूँद अमृत जुटा उसे
अभिसिंचित करने की कोशिश की थी
तुमने उस कलश को ही पद प्रहार से
लुढ़का कर गिरा क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
और अगर हूँ भी तो क्या यह दोष मेरा है ?
साधना वैद
अपने सपनों को नई ऊँचाई देने के लिये
मैंने बड़े जतन से टुकड़ा टुकडा आसमान जोडा था
तुमने परवान चढ़ने से पहले ही मेरे पंख
क्यों कतर दिये माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने भविष्य को खूबसूरत रंगों से चित्रित करने के लिये
मैने क़तरा क़तरा रंगों को संचित कर
एक मोहक तस्वीर बनानी चाही थी
तुमने तस्वीर पूरी होने से पहले ही
उसे पोंछ क्यों डाला माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने जीवन को सुख सौरभ से सुवासित करने के लिये
मैंने ज़र्रा ज़र्रा ज़मीन जोड़
सुगन्धित सुमनों के बीज बोये थे
तुमने उन्हें अंकुरित होने से पहले ही
समूल उखाड़ कर फेंक क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
अपने नीरस जीवन की शुष्कता को मिटाने के लिये
मैंने बूँद बूँद अमृत जुटा उसे
अभिसिंचित करने की कोशिश की थी
तुमने उस कलश को ही पद प्रहार से
लुढ़का कर गिरा क्यों दिया माँ ?
क्या सिर्फ इसलिये कि मैं एक बेटी हूँ ?
और अगर हूँ भी तो क्या यह दोष मेरा है ?
साधना वैद
Tuesday, May 4, 2010
आत्म साक्षात्कार
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अब खुले वातायनो से
सुखद, मन्द, सुरभित पवन के
मादक झोंके नहीं आते,
अंतर्मन की कालिमा उसमें मिल
उसे प्रदूषित कर जाती है।
अब नयनों से विशुद्ध करुणा जनित
पवित्र जल की निर्मल धारा नहीं बहती,
पुण्य सलिला गंगा की तरह
उसमें भी घृणा के विष की पंकिल धारा
साथ-साथ बहने लगी है।
अब व्यथित पीड़ित अवसन्न हृदय से
केवल ममता भरे आशीर्वचन और प्रार्थना
के स्वर ही उच्छवसित नहीं होते,
कम्पित अधरों से उलाहनों,
आरोपों, प्रत्यारोपों की
प्रतिध्वनि भी झंकृत होने लगी है।
अब नीरव, उदास, अनमनी संध्याओं में
अवसाद का अंधकार मन में समा कर
उसे शिथिल, बोझिल,
निर्जीव सा ही नहीं कर जाता,
उसमें अब आक्रोश की आँच भी
नज़र आने लगी है
जो उसे धीमे-धीमे सुलगा कर
प्रज्वलित कर जाती है।
लेकिन कैसी है यह आँच
जो मेरे मन को मथ कर
उद्वेलित कर जाती है?
कैसा है यह प्रकाश
जिसके आलोक में मैं
अपने सारे स्वप्नों के साथ-साथ
अपनी समस्त कोमलता,
अपनी मानवता,
अपनी चेतना, अपनी आत्मा,
अपना अंत:करण
और अपने सर्वांग को
धू-धू कर जलता देख रही हूँ
नि:शब्द, अवाक, चुपचाप !
साधना वैद
अब खुले वातायनो से
सुखद, मन्द, सुरभित पवन के
मादक झोंके नहीं आते,
अंतर्मन की कालिमा उसमें मिल
उसे प्रदूषित कर जाती है।
अब नयनों से विशुद्ध करुणा जनित
पवित्र जल की निर्मल धारा नहीं बहती,
पुण्य सलिला गंगा की तरह
उसमें भी घृणा के विष की पंकिल धारा
साथ-साथ बहने लगी है।
अब व्यथित पीड़ित अवसन्न हृदय से
केवल ममता भरे आशीर्वचन और प्रार्थना
के स्वर ही उच्छवसित नहीं होते,
कम्पित अधरों से उलाहनों,
आरोपों, प्रत्यारोपों की
प्रतिध्वनि भी झंकृत होने लगी है।
अब नीरव, उदास, अनमनी संध्याओं में
अवसाद का अंधकार मन में समा कर
उसे शिथिल, बोझिल,
निर्जीव सा ही नहीं कर जाता,
उसमें अब आक्रोश की आँच भी
नज़र आने लगी है
जो उसे धीमे-धीमे सुलगा कर
प्रज्वलित कर जाती है।
लेकिन कैसी है यह आँच
जो मेरे मन को मथ कर
उद्वेलित कर जाती है?
कैसा है यह प्रकाश
जिसके आलोक में मैं
अपने सारे स्वप्नों के साथ-साथ
अपनी समस्त कोमलता,
अपनी मानवता,
अपनी चेतना, अपनी आत्मा,
अपना अंत:करण
और अपने सर्वांग को
धू-धू कर जलता देख रही हूँ
नि:शब्द, अवाक, चुपचाप !
साधना वैद
Monday, May 3, 2010
तुम क्या जानो
कुछ आपबीती कुछ जगबीती
पुरुष प्रधान भारतीय समाज में नारी को किस तरह से विषम परिस्थितियों में अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करना पड़ा है । रूढिवादी रस्मों रिवाज़ और परम्पराओं की बेड़ियों से जकड़े होने के बावज़ूद भी जीवनधारा के विरुद्ध प्रवाह में तैरते हुए किस तरह से उसने आधुनिक समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है , अपनी पहचान पुख्ता की है यह कविता स्त्री की हर हाल में जीत हासिल करने की उसी अदम्य जिजिविषा को अभिव्यक्ति देने की छोटी सी कोशिश है ।
तुम क्या जानो
रसोई से बैठक तक,
घर से स्कूल तक,
रामायण से अखबार तक
मैने कितनी आलोचनाओं का ज़हर पिया है
तुम क्या जानो !
करछुल से कलम तक,
बुहारी से ब्रश तक,
दहलीज से दफ्तर तक
मैंने कितने तपते रेगिस्तानों को पार किया है
तुम क्या जानो !
मेंहदी के बूटों से मकानों के नक्शों तक,
रोटी पर घूमते बेलन से कम्प्यूटर के बटन तक,
बच्चों के गड़ूलों से हवाई जहाज़ की कॉकपिट तक
मैंने कितनी चुनौतियों का सामना किया है
तुम क्या जानो !
जच्चा सोहर से जाज़ तक,
बन्ना बन्नी से पॉप तक,
कत्थक से रॉक तक मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
तुम क्या जानो !
सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये,
बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये,
निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उँगली मरोड़ने के लिये
मैने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो !
आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर,
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर, निखर कर,
कंचन सी, कुंदन सी अपरूप दपदपाती
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने
अजेय, अपराजेय, दिक्विजयी !
मुझे इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो !
साधना वैद
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
पुरुष प्रधान भारतीय समाज में नारी को किस तरह से विषम परिस्थितियों में अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करना पड़ा है । रूढिवादी रस्मों रिवाज़ और परम्पराओं की बेड़ियों से जकड़े होने के बावज़ूद भी जीवनधारा के विरुद्ध प्रवाह में तैरते हुए किस तरह से उसने आधुनिक समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है , अपनी पहचान पुख्ता की है यह कविता स्त्री की हर हाल में जीत हासिल करने की उसी अदम्य जिजिविषा को अभिव्यक्ति देने की छोटी सी कोशिश है ।
तुम क्या जानो
रसोई से बैठक तक,
घर से स्कूल तक,
रामायण से अखबार तक
मैने कितनी आलोचनाओं का ज़हर पिया है
तुम क्या जानो !
करछुल से कलम तक,
बुहारी से ब्रश तक,
दहलीज से दफ्तर तक
मैंने कितने तपते रेगिस्तानों को पार किया है
तुम क्या जानो !
मेंहदी के बूटों से मकानों के नक्शों तक,
रोटी पर घूमते बेलन से कम्प्यूटर के बटन तक,
बच्चों के गड़ूलों से हवाई जहाज़ की कॉकपिट तक
मैंने कितनी चुनौतियों का सामना किया है
तुम क्या जानो !
जच्चा सोहर से जाज़ तक,
बन्ना बन्नी से पॉप तक,
कत्थक से रॉक तक मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
तुम क्या जानो !
सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये,
बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये,
निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उँगली मरोड़ने के लिये
मैने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो !
आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर,
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर, निखर कर,
कंचन सी, कुंदन सी अपरूप दपदपाती
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने
अजेय, अपराजेय, दिक्विजयी !
मुझे इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो !
साधना वैद
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
Saturday, May 1, 2010
नारी जीवन - तेरी यही कहानी!
जीवन जिया,
मंजिलें भी मिली,
एक के बाद एक
बस नहीं मिला तो
समय नहीं मिला।
कुछ ऐसे क्षण खोजती ही रही ,
जो अपने और सिर्फ अपने लिए
जिए होते तो अच्छा होता।
जब समझा अपने को
कुछ बड़े मिले कुछ छोटे मिले
कुछ आदेश और कुछ मनुहार
करती रही सबको खुश ।
दूसरा चरण जिया,
बेटी से बन बहू आई,
झूलती रही, अपना कुछ भी नहीं,
चंद लम्हे भी नहीं जिए
जो अपने सिर्फ अपने होते।
पत्नी, बहू और माँ के विशेषण ने
छीन लिया अपना अस्तित्व, अपने अधिकार
चाहकर न चाहकर जीती रही ,
उन सबके लिए ,
जिनमें मेरा जीवन बसा था।
अपना सुख, खुशी निहित उन्हीं में देखी
थक-हार कर सोचा
कुछ पल अपने लिए
मिले होते
ख़ुद को पहचान तो लेती
कुछ अफसोस से
मुक्त तो होती
जी तो लेती कुछ पल
मंजिलें भी मिली,
एक के बाद एक
बस नहीं मिला तो
समय नहीं मिला।
कुछ ऐसे क्षण खोजती ही रही ,
जो अपने और सिर्फ अपने लिए
जिए होते तो अच्छा होता।
जब समझा अपने को
कुछ बड़े मिले कुछ छोटे मिले
कुछ आदेश और कुछ मनुहार
करती रही सबको खुश ।
दूसरा चरण जिया,
बेटी से बन बहू आई,
झूलती रही, अपना कुछ भी नहीं,
चंद लम्हे भी नहीं जिए
जो अपने सिर्फ अपने होते।
पत्नी, बहू और माँ के विशेषण ने
छीन लिया अपना अस्तित्व, अपने अधिकार
चाहकर न चाहकर जीती रही ,
उन सबके लिए ,
जिनमें मेरा जीवन बसा था।
अपना सुख, खुशी निहित उन्हीं में देखी
थक-हार कर सोचा
कुछ पल अपने लिए
मिले होते
ख़ुद को पहचान तो लेती
कुछ अफसोस से
मुक्त तो होती
जी तो लेती कुछ पल
कहीं दूर प्रकृति के बीच या एकांत में
जहाँ मैं और सिर्फ मैं होती.
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