सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, March 16, 2010

तुम क्यूं

तुम क्यूं झेल रही हो
पुरूषों को
जो नित्य ही मनुष्य के खोल
से बाहर आते हैं,
अधिकतर पुरूष का भी लबादा
नहीं रखते
बन जाते है हाड़ मांस के वहषी
सिर्फ मादा ही नजर आती है
हर नारी
जो कभी माँ,बहन-पत्नि होती है,
भभूका सा काबिज हो जाता है
हर लेता है समस्त विवेक
पुरूष से,मनुष्य से,
ओ! कापुरूषों क्यूं नही छोड़ देते
ये वहशीपन
जो दुनिया को गर्त में धकेल रहा है!
..किरण राजपुरोहित नितिला

© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!

7 comments:

संजय भास्‍कर said...

कई रंगों को समेटे एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई

Anonymous said...

bahut khub

vandana gupta said...

bahut sundar bhav .

रंजू भाटिया said...

भावपूर्ण सच्ची रचना लिखी है आपने ...

Neeraj Kumar said...

कड़वी परन्तु सच्ची बातें... लेकिन जवाब कौन दे? केवल वाह-वाह ही कर सकता हूँ...

रेखा श्रीवास्तव said...

बहुत भावपूर्ण रचना , जो हमें एक आइना दिख रही है, तस्वीर जिसकी है वो जान लें.

Unknown said...

bahut khoob ...purushon ki deh lolupta per aapka kataksh v purusho ko aaena dikha dene mein samarth ye kavya sarthak rachna hai ...kiran ..bahut acha likh rehi hai aap