वह दुनियाँ का सबसे
निरीह प्राणी है -
अपने जिगर के टुकड़े को
साथ लिए लिए
उसके बचपन से
जवानी तक
घूमता रहा.
कभी पढ़ाई, कभी कोचिंग,
औ' फिर कभी
एडमिशन, कम्पटीशन, जॉब सर्चिंग
हाथ पकड़े घूमता रहा,
जब तक
उसके पैरों तले ठोस जमीं न मिली.
उस मुकाम पर पहुंचा कर
फिर खुद का सफर,
एक नया सफर
अपनी उम्र के तीसरे पड़ाव पर,
दर-दर भटका
अब बारी थी
बेटी के ब्याहने की.
कहीं दरवाजा खोला गया,
कहीं एक गिलास पानी मिला
औ' कहीं
बंद दरवाजे से आवाज आई
घर में कोई नहीं है,
फिर कभी आइयेगा.
कई कई दरवाजों की
धूल छानकर
पसीना पोंछते हुए वापस
घर में आकर सांस ली.
पत्नी पानी का गिलास
हाथ में लेकर
चेहरा पढ़ने की कोशिश में
हताश चेहरा
अपनी कहानी खुद
बयां कर रहा होता.
फिर दो चार दिन में
नए पते लेकर
फोटो और बायोडाटा के साथ
घर घर जाना
कोई पूछता--
आपका कितने का संकल्प है?
कितना खर्च करने की सोची है?
कुछ और बढ़ जाइये तो?
इतने ?? में तो
मैं बात ही नहीं करता.
अभी इससे अधिक देनेवालों को
मैं ने बुलाया ही नहीं है.
अजी पैसे नहीं है,
क्या मेरा ही घर बचा है?
कुछ रिश्तेदारों की सलाहें
पहले ही कहा था कि
अधिक मत पढ़ाइये
जल्दी शादी कर दीजिये.
कुछ के व्यंग्य भरे कटाक्ष
उनकी अपनी उपलब्धियों की गाथा
बिना मांगी सलाह
'मेरी मानिये तो
अब नीचे उतर आइये
बस देखिये
लड़का ठीक ठाक हो,
बेटी को कमा रही है
दोनों आराम से रहेंगे.'
वह निरीह प्राणी
रात की नींद
गिरवी रखकर
तारों को निहारता
सोचता है --
क्या गुनाह किया?
बेटी को जन्म दिया?
उसको उच्च शिक्षा दिलाई?
या उसके लिए
सुयोग्य वर की कामना की?
सब अनुत्तरित प्रश्न
उसको निरीह बना रहे हैं
क्योंकि
एक अघोषित अपराधी,
जिसका अपराध अक्षम्य है.
इस समाज की अदालत में
गुनाहगार बना खड़ा है.
क्योंकि वह एक
बेटी का पिता है.
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
10 comments:
kyaa us pita ne khud dahej laekar vivaah kiyaa thaa agar haan to http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2010/03/blog-post.html
agar naa to beti ko jeena sikha diyaa shadi ko beti ki niyati naa banayae khud bhi khush rhaey beti bhi khush rahey
@रचना ,
नहीं, बेटी को एक सुयोग्य वर के साथ ब्याहने का हक है उसके पिता को, कोई भी माँ-बाप ऐसा कभी नहीं सोचता और ये इस समस्या का हल भी नहीं है. एक सामाजिक क्रांति का आवाहन है - इस अघोषित अपराधी की कहानी' क्योंकि आज ५० प्रतिशत परिवारों कि यही कहानी है. हमें सोच को बदलने की जरूरतहै.
ek anuttarit prashna hai ........sab kahte hain soch badal rahi hai magar kahin na kahin ab ise doosre dhang se prastut kiya ja raha hai bas tarika hi badla hai magar mansikata aaj bhi wo hi hai.
isi par maine bhi ek choti si kahani likhi thi padhakar apne vicharon se avgat karaiyega.kahani hai----------
"ye kaisi bebasi"----http://ekprayas-vandana.blogspot.com
एक अघोषित अपराधी,
जिसका अपराध अक्षम्य है.
इस समाज की अदालत में
गुनाहगार बना खड़ा है.
क्योंकि वह एक
बेटी का पिता है.
बहुत मार्मिक रचना है मगर समाज का करूप चेहरा । और समाज मे शायद हर घर मे ऐसे पिता हैं जो शायद खुद भी जिम्मेदार हैं अपनी इस हालत के लिये। क्यों कि जब वो बेटे के बाप होते हैं तो दूसरा चेहरा चढा लेते हैं मगर जब बेटी के बाप होते हैं तो दूसरा। अगर हर बेटे वाला चाहे तो ये तस्वीर बदल सकती है। बहुत अच्छी रचना। शुभकामनायें
यह एक कड़वा सच है. सोचना है कि इसे बदलें कैसे?
हमें सोच को बदलने की जरूरतहै.
koi bhi kranti apnae ghar sae shuru hotee haen aur har kranti mae kuchh log apna sab kuchh daav par lagaa daetey haen jis din betiyaan auir unkae abhibhavak shaadi ko ladki ki niyatati nahin maanaegae aur usko iskae liyae baadhit nahin karaegae badlaav aayegaa
shaadi man ka smabandh hona chahiyae smaaj ko chalane kaa zariya nahin
मैं रचना जी से सहमत हूं… पूरी तरह्…
meri teen betiyaan hee hain-kabhi nahin socha beta hona jaroori hai- par kisi ke uksaane main nahin aaya. Phir bhi mujhe aur nahin to betiiyon ke saas sasur aaj bhi mujhe apraadhi maante hain
राजेंद्र जी,
हाँ हमारा समाज अभी इस मानसिकता से उबरा नहीं है कि बेटा न हो. कई जगह तो लोग रिश्ते से इस लिए इनकार कर देते हैं कि लड़की के कोई भाई नहीं है. मेरी भी दो बेटियां ही है किन्तु आपकी तरह से मुझे भी कोई मलाल नहीं है. बेटियां भी एक जिम्मेदार संतान होती है. दामाद बेटे से कम नहीं होते. लोग अपराधी माने तो सही हमें नहीं मानना चाहिए.
@रचना,
तुम्हारा विचार सही है किन्तु क्या सिर्फ अविवाहित रहकर इस समस्या का निदान खोजा जा सकता है. इस निदान के लिए संकल्प कि जरूरत है और लड़के और लड़कियों दोनों के लिए ही. इकतरफा निर्णय निदान नहीं है. इसके लिए संकल्प शक्ति दृढ होनी चाहिए. इसके लिए माँ-बाप को भी दृढ़ता से विरोध करना पड़ेगा. लड़कियों को बाध्य तो नहीं ही करना चाहिए बल्कि उनके विचारों का सम्मान करनाचाहिए.
Post a Comment