सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, March 9, 2010

यह एक दिन




हर वर्ष आता है
या शायद
लाया जाता है
यह दिन ,
आंकड़ों को टटोलते हुये
कभी कहता 1000 पर 945
कभी 33प्रतिशत
कभी 18 प्रतिशत ,
इनमें हेरफेर से
हो जाता है
क्या समाज में परिवर्तन ?
बदल तो नही जाती
मानसिकता ,
प्रकृति की प्रकृति
और कुछ कुछ नियति,
कम तो नही होती
रोज की घटनायें
प्रताड़ना
गली सड़क पर
उछलते फिकरे
बसों में हाथों की हरकतें
भीड़ में ठेलमठेल
मां से शुरु होकर
बहन तक जाती गालियां
लड़कियों की पाबंदी
बचपन से स्त्री बनने का दबाव
और नुमाइश लड़की की
कुछ लोगों के सामने
जो आखिर पुरुष बन
तय करता है
उसका भविश्य
अपनी शर्तों पर
रिवाजों की दुहाई देकर !
सदियों की मानसिकता ही तो
कायम रखता है ,
कितनी ही उचाईयां छूकर भी
समाज की
प्रश्नवाचक दृष्टि
वक्रता कम नही होती
वह तीक्ष्ण होकर
कसौटियों के कांटे
और बिछाकर कहता
अब!
पार होकर
दिखाओ तो जानें!
..............किरण राजपुरोहित नितिला

3 comments:

Anonymous said...

bahut khub

mukti said...

सही बात है. आँकड़ों से कुछ नहीं होने वाला. जब तक मानसिकता नहीं बदलेगी, कुछ भी नहीं बदलेगा. सच्चाई सामने रखती है यह कविता.

रेखा श्रीवास्तव said...

यथार्थ को उजागर कर रही है आपकी कविता . ये महिला दिवस एक दिन भी तो नहीं पचा पते हैं लोग . हम कल भी वही थे और आज भी वही हैं . हमारी नियति हम ही बदल सकते हैं . बस संकल्प की जरूरत है .