सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Friday, August 29, 2008

क्योंकि मैं लड़की हूं

सचिन मिश्रा जी की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं ।
हिन्दी ब्लॉगर सचिन मिश्रा जी नारी आधरित विषयों पर अपनी राय कमेन्ट के माध्यम से हम तक पहुचाते रहे हैं ।
इस कविता को यहाँ पोस्ट करके हम शायद बस इतना कर रहे के की उनके कलम से निकली "अपनी बात को " एक बार फिर दोहरा रहे हैं ।
क्योंकि मैं लड़की हूं
किसी ने कोख में खत्म कर दिया
किसी ने पंगूड़ा में छोड़ दिया
किसी ने मेरे जन्म पर खाना ही छोड़ दिया
सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं लड़की हूं
इसमें उनका कोई कसूर नहीं
कसूरवार तो मैं हूं
क्योंकि मैं लड़की हूं
भाई शहर में पढ़ेगा, मैं घर से निकलूंगी तो कोई देख लेगा
मैं उनका नाम थोड़े ही रोशन करूंगी
रूखा-सूखा खाकर भी भाई से मोटी हूं
दिन-दूने, रात चौगुने बढ़ती हूं
क्योंकि मैं लड़की हूं.
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Wednesday, August 27, 2008

क्या वो सिर्फ एक देह है ????

नीतीश राज की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं ।
हिन्दी ब्लॉगर नीतीश राज जी नारी आधरित विषयों पर अपनी राय कमेन्ट के माध्यम से हम तक पहुचाते रहे हैं । उनकी कलम से हमेशा एक संवेदन शील बात निकलती रही हैं जिस मे नारी के प्रति एक ऐसा नजरिया देखने को मिला हैं जो कम लोग रखते हैं ।
इस कविता को यहाँ पोस्ट करके हम शायद बस इतना कर रहे के की उनके कलम से निकली "अपनी बात को " एक बार फिर दोहरा रहे हैं ।



अक्सर वो अपने से प्रश्न करती,
क्यों, वो कर्कसता को
उलाहनों को, गलतियों को
झिड़की को सहन करती है।

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?

जो कि सबकी निगाहों में
अपने पढ़े जाने का,
शरीर के हर अंग को
साढ़ी और ब्लाउज के रंग को
वक्ष के उभार,
उतार-चढ़ाव को
कूल्हों की बनावट को
होठों की रसमयता को
आंखों की चंचलता को,
क्या कोमल गर्भ-गृह का
सिर्फ श्रृंगार है।

जिसे बीज की तैयारी तक
कसी हुई बेल की तरह बढ़ना है,
फिर उसके, जिसको जानती नहीं
अस्तित्व में अकारण खो जाना है,
कोढ़ पर बैठी मक्खी की तरह।


जिस के ऊपर
फुसफुसाहट सुनती
वो नयन-नक्स
वो देह की बनावट
बोझ जो उसका अपना
चाहा हुआ नहीं,
किसी और की दुनिया
के दर्जी की गलत काट के कारण,
उसके सीने पर चढ़ाया गया
अक्सर वो खुद से प्रश्न करती।

'क्या वो सिर्फ एक देह है'?


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Tuesday, August 26, 2008

मैं

किसी की आँखों का काँटा थी मैं
तो किसी की आँख की किरकिरी थी मैं ,
किसी की नज़रों में खटकती थी मैं
तो शायद ही किसी को भाती थी मैं ,
सबकी चर्चाओं का केंद्रबिंदु थी मैं
तो किसी के व्यंग बाणों का लक्ष्य थी मैं ,
तो किसी की उपहासपूर्ण मुस्कराहट
का केन्द्र थी मैं |
पर वैसे तो सुलभा थी
आलोचानाओं ,उलाहनों विरोधो से
होंसले बुलन्द करती थी मैं ,
अग्निपथ पर चलते हुए
कुंदन सी निखर गई थी मैं ,
वैसी ही थी ,और अब भी
वैसे ही ,वही सुलभा हूँ मैं |

अज्ञात ॥ [किस ने लिखी है पता नही ,पर कहीं पढ़ी है यह सो यहाँ पोस्ट कर दी ]

Thursday, August 21, 2008

प्रगाढ़ संबंधो की पीड़ा

कभी सुख कभी दुःख
कभी आंसू कभी हसीं
वह लेते रहे
वह देती रही
सम्बन्ध प्रगाढ़ रहे
साथ पर ना वह रहे
प्रगाढ़ संबंधो मे
ना बाँट सकने कि
पीड़ा को
वह महसूसती रही
वह खामोश देखते रहे



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Thursday, August 14, 2008

Wednesday, August 13, 2008

वन्दे मातरम् Mother, I bow to thee!

वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्य श्यामलां मातरं .
शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् .
सुखदां वरदां मातरम् .. वन्दे मातरम्

सप्त कोटि कण्ठ कलकल निनाद कराले
निसप्त कोटि भुजैर्ध्रुत खरकरवाले
के बोले मा तुमी अबले
बहुबल धारिणीं नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीं मातरम् .. वन्दे मातरम्

तुमि विद्या तुमि धर्म,तुमि हृदि तुमि मर्म
त्वं हि प्राणाः शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारै प्रतिमा गडि मंदिरे मंदिरे .. वन्दे मातरम्

त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम् .. वन्दे मातरम्

श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीं मातरम् ॥ वन्दे मातरम्

बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय


Mother, I bow to thee!
Rich with thy hurrying streams,
bright with orchard gleams,
Cool with thy winds of delight,
Dark fields waving Mother of might,
Mother free.
Glory of moonlight dreams,
Over thy branches and lordly streams,
Clad in thy blossoming trees,
Mother, giver of ease
Laughing low and sweet!
Mother I kiss thy feet,
Speaker sweet and low!
Mother, to thee I bow.

Who hath said thou art weak in thy lands
When the sword flesh out in the seventy million hands
And seventy million voices roar
Thy dreadful name from shore to shore?
With many strengths who art mighty and stored,
To thee I call Mother and Lord!
Though who savest, arise and save!
To her I cry who ever her foeman drove
Back from plain and Sea
And shook herself free.

Thou art wisdom, thou art law,
Thou art heart, our soul, our breath
Though art love divine, the awe
In our hearts that conquers death.
Thine the strength that nervs the arm,
Thine the beauty, thine the charm.
Every image made divine
In our temples is but thine.


Thou art Durga, Lady and Queen,
With her hands that strike and her
swords of sheen,
Thou art Lakshmi lotus-throned,
And the Muse a hundred-toned,
Pure and perfect without peer,
Mother lend thine ear,
Rich with thy hurrying streams,
Bright with thy orchard gleems,
Dark of hue O candid-fair
In thy soul, with jewelled hair
And thy glorious smile divine,
Lovilest of all earthly lands,
Showering wealth from well-stored hands!
Mother, mother mine!
Mother sweet, I bow to thee,
Mother great and free!

Shree Aurobindo

भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की कविताये

भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की कविताये

PAST AND FUTURE

by: Sarojini Naidu (1879-1949)

      HE new hath come and now the old retires:
      And so the past becomes a mountain-cell,
      Where lone, apart, old hermit-memories dwell
      In consecrated calm, forgotten yet
      Of the keen heart that hastens to forget
      Old longings in fulfilling new desires.
      And now the Soul stands in a vague, intense
      Expectancy and anguish of suspense,
      On the dim chamber-threshold . . . lo! he sees
      Like a strange, fated bride as yet unknown,
      His timid future shrinking there alone,
      Beneath her marriage-veil of mysteries.
Indian Weavers
BY

Sarojini Naidu



WEAVERS, weaving at break of day,
Why do you weave a garment so gay? . . .
Blue as the wing of a halcyon wild,
We weave the robes of a new-born child.

Weavers, weaving at fall of night,
Why do you weave a garment so bright? . . .
Like the plumes of a peacock, purple and green,
We weave the marriage-veils of a queen.

Weavers, weaving solemn and still,
What do you weave in the moonlight chill? . . .
White as a feather and white as a cloud,
We weave a dead man's funeral shroud.

THE SOUL'S PRAYER

by: Sarojini Naidu (1879-1949)

      N childhood’s pride I said to Thee:
      ‘O Thou, who mad’st me of Thy breath,
      Speak, Master, and reveal to me
      Thine inmost laws of life and death.
      ‘Give me to drink each joy and pain
      Which Thine eternal hand can mete,
      For my insatiate soul would drain
      Earth’s utmost bitter, utmost sweet.
      ‘Spare me no bliss, no pang of strife,
      Withhold no gift or grief I crave,
      The intricate lore of love and life
      And mystic knowledge of the grave.’
      Lord, Thou didst answer stern and low:
      ‘Child, I will hearken to thy prayer,
      And thy unconquered soul shall know
      All passionate rapture and despair.
      ‘Thou shalt drink deep of joy and fame,
      And love shall burn thee like a fire,
      And pain shall cleanse thee like a flame,
      To purge the dross from thy desire.
      ‘So shall thy chastened spirit yearn
      To seek from its blind prayer release,
      And spent and pardoned, sue to learn
      The simple secret of My peace.
      ‘I, bending from my sevenfold height,
      Will teach thee of My quickening grace,
      Life is a prism of My light,
      And Death the shadow of My face.’

Monday, August 11, 2008

झाँसी की रानी

आज़ादी के पावन पर्व की शुरुवात इस कविता से हो रही हैं । सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता झाँसी की रानी एक ऐसी कविता जो कभी पुरानी नहीं पड़ सकती । कोई और भी प्रेरणा स्रोत कविता भेजना चाहे तो संपर्क कर सकता हैं । कविता आज़ादी से अम्बन्धित हो और किसी जाने माने कवि की हो ।

झाँसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।

महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।


पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।


घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,


दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Saturday, August 9, 2008

सुलगे मन में जीने की इच्छा सुलगी

जले हुए तन से
कहीं अधिक पीड़ा थी
सुलगते मन की
गुलाबी होठों की दो पँखुडियाँ
जल कर राख हुई थीं
बिना पलक की आँखें
कई सवाल लिए खुली थीं
माँ बाबूजी के आँसू
उसकी झुलसी बाँह पर गिरे
वह दर्द से तड़प उठी...
खारे पानी में नमक ही नमक था
मिठास तो उनमे तब भी नही थी
जब कुल दीपक की इच्छा करते
जन्मदाता मिलने से भी डरते
कहीं बेटी जन्मी तो............
सोच सोच कर थकते
पूजा-पाठ, नक्षत्र देखते ,
फिर बेटे की चाह में मिलते
कहीं अन्दर ही अन्दर
बेटी के आने के डर से
यही डर डी एन ए खराब करता
होता वही जिससे मन डरता
फिर उस पल से पल पल का मरना
माँ का जी जलना, हर पल डरना
बेचैन हुए बाबूजी का चिंता करना
अपनी नाज़ुक सी नन्ही को
कैसे इस दुनिया की बुरी नज़र से
बचा पाएँगें...
कैसे समाज की पुरानी रुढियों से
मुक्त हो पाएँगे....
झुलसी जलती सी ज़िन्दा थी
सफेद कफन के ताबूत से ढकी थी
बिना पलक अपलक देख रही थी
जैसे पूछ रही हो एक सवाल
डी एन ए उसका कैसे हुआ खराब
बाबूजी नीची नज़र किए थे
माँ के आँसू थमते न थे
अपराधी से दोनो खड़े थे
सोच रहे थे अभिमन्यु ने भी
माँ के गर्भ में ज्ञान बहुत पाया था
गार्गी, मैत्रयी, रज़िया सुल्तान
जीजाबाई और झाँसी की रानी ने
इतिहास बनाया
इन्दिरा, किरनबेदी, लता, आशा ने
भविष्य सजाया
फिर हमने क्यों न सोचा....
काश कुछ तो ज्ञान दिया होता...
समाज के चक्रव्यूह को तोड़ने का
कोई तो उपाय दिया होता....
माँ बाबूजी कुछ कहते उससे पहले
दोनो की आँखों से
पश्चाताप के दो मोती लुढ़के
उसके स्याह गालों पर ढुलके
उस पल में ही जलते तन में
अदभुत हरकत सी हुई
सुलगे मन में जीने की इच्छा सुलगी
उस उर्जा से शक्ति गज़ब की पाई
नए रूप में नए भाव से
मन की बगिया महकी !

( जिन कविताओं को पढ़कर इस रचना का जन्म हुआ , सभी उर्जा स्त्रोत जैसी यहीं कहीं छिपीं हुई हैं)
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Friday, August 8, 2008

ज्वलनशील नारियाँ

घुघुती बासूती जी का नाम परिचय का मोहताज नहीं हैं । निरंतर नारी आधारित विषयों पर लिख रही हैं और तीखा और आइने की तरह साफ़ । उनकी ये कविता बालकिशन जी की कविता को पढ़ने के बाद उनके कलम से निकली हैं । कविता अतिथि कवि की कलम से के तहत डाली जा रही हैं । आशा हैं लोगो को जरुर पसंद आयेगी ।


ज्वलनशील नारियाँ

नारियों के,
भारतीय नारियों के जलने पर
क्यों अफसोस है
वे तो सदा से ज्वलनशील रही हैं
उसमें न हमारा कोई दोष है,
नहीं तो कोई
उसके जीवित जलने की कल्पना
भी कैसे करता?
तब, जब हम चला रहे थे
अग्नि बाण
जब उत्कर्ष के चरम पर था
हमारा इतिहास
तब भी माद्री बन रही थी
जीवित मशाल।
तब जब हम थे भाग रहे
मुगलों से मुँह छिपा
जब पतन की गर्त में था
हमारा इतिहास
तब भी हम गौरान्वित थे,
क्या हुआ जो हम
न बचा सके अपनी
बेटियों की लाज,
ब्याह रहे थे उन्हें मुगलों से
पाने को कुछ स्वर्ण ग्रास
तब भी पत्नियाँ तो थीं हमारी
सीता, सती व सावित्री
कूद रहीं थीं पद्मिनियाँ
जलने को जौहर की आग में।
फिर जब बन रहे थे
पढ़ अंग्रेजी
जैन्टलमैन बाबू हम
तब भी इन ज्वलनशील नारियों
ने डुबाया था नाम देश का
आना पड़ा था इक
राजा राममोहन रॉय को,
जब भी कोई भद्र
मरणासन्न बूढ़ा खोलता था
करवा कन्यादान
किन्हीं नन्हीं बालाओं के
माता पिता के स्वर्गद्वार
तब उसके मरने पर
बैठ जातीं थीं चिता पर
ये नन्हीं बालाएँ
प्यार में उस वृद्ध के।
आज जब हम
दौड़ में बहुत आगे हैं
हमने आइ टी में रचा है
इक नया इतिहास
तब भी क्या करें
ये ज्वलनशील नारियाँ हमारी
कभी भी
इक माचिस की तीली की
छुअन से जल जाती हैं,
हम नहीं चाहते परन्तु ये
न जाने क्यों भस्म हो
जल मर जाती हैं?
हम भी तो हैं फूँकते
न जाने कितने अरब
सिगरेट और बीड़ियाँ
क्या जली है मूँछ भी
कभी गलती से हमारी आज तक?
फिर न जाने क्या गलत है
डी एन ए में
भारतीय ही नारी के
क्यों ज्वलनशील है वह
हम नहीं हैं जानते।


२०08-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Thursday, August 7, 2008

मुझे मत जलाओ

बाल किशन जी की ये कविता हम अतिथि कवि की कलम से के तहत पोस्ट कर रहे हैं ।
हिन्दी ब्लॉगर बाल किशन जी यदा कदा नारी आधरित विषयों पर लिखते रहे हैं । इस कविता को यहाँ पोस्ट करके हम शायद बस इतना कर रहे के की उनके कलम से निकली "अपनी बात को " एक बार फिर दोहरा रहे हैं ।
आप जरुर पढे और अपना कमेन्ट भी दे । किसी ने सही ही कहा हैं कविता साहित्यकार की जागीर नहीं है , कविता आत्मा से आती हैं और आत्मा को भिगो जाती हैं । साहित्यकार के पास सुंदर शब्दों का भण्डार होता हैं जो मन के भावो को "मीटर" मे बंधता हैं । शब्दों को बांधने पर क्या मन को बंधा जा सकता हैं , पता नहीं पर कविता बहुत कुछ कह रही हैं सो सुने बालकिशन जी के शब्दों की आवाज ।

मुझे मत जलाओ!

एक दिन कि बात है शान्ति की खोज में भटकता
मैं भूतों डेरे से गुजर रहा था
सहसा मैंने सुनी एक अबला की चित्कार
करुण स्वर में पुकार रही थी वो बारम्बार
मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ!

मैं दौड़ कर पंहुचा उस पार
कुछ समझा कुछ समझ नही पाया
करुण से भी करुण स्वर में
सुनी मैंने करुना की पुकार
मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ! मुझे मत जलाओ!

देखा उधर तो देखता ही रहगया एक बार
एक चिता थी जल रही
दूसरी को वे कर रहे थे जबरदस्ती तैयार
मैंने क्रोध से पूछा
ये तो मर गया पर ये किसलिए तैयार
एक बोला- यह उसकी पत्नी है
इसलिए इसे जलने का अधिकार
और ये जलने को तैयार
कुछ देर बाद ये जल जायेगी
फ़िर अमर....... कहलाएगी.

दूसरा बोला- जी कर भी क्या करेगी
कभी चुडैल, कभी डायन तो
कभी कुलभक्षानी के पहनेगी अलंकार
इसलिए जलना ही इसकी मुक्ति का आधार
और ये जलने को तैयार

तीसरा बोला- जलना तो इसकी किस्मत है
कभी दहेज़ के लिए जलेगी,
कभी सतीत्व की गरिमा पाकर
करेगी इस संसार पर उपकार
इसलिए ये जलने को तैयार.

क्रोध हवा हुआ भय मन में समाया
आत्मा काँप उठी बदन थरथराया
कुछ सोच ना सका, कुछ कह ना सका ,कुछ कर ना सका
एक कीडे की भांति रेंगता घर लौट आया.

अब तो शायद हर रोज सुनता हूँ ये चित्कार, ये पुकार
और सिर्फ़ सोचता भर हूँ कि
कंही कुछ खो सा गया है।
कंही कुछ खो सा गया है।
कंही कुछ खो सा गया है.

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भ्रूण का वक्तव्य

भूर्ण हत्या सबसे बड़ा पाप है ..आज अनुराग अन्वेषी की कविता इसी के बारे में आज मेहमान कवि के रूप में यहाँ दी जा रही है |
अपने विचार जरुर वयक्त करें |
ओ मां,
तुम ख़ुद स्त्री हो
इसलिए जानती हो
इस कटखने समाज में
पल-बढ़ रही स्त्री का दर्द।

चूंकि इस वक्त मैं
तुम्हारे भीतर पल रही हूं
इसलिए जान भी रही हूं
समाज के इस कड़वे स्वाद को
और आज
तुम्हारी उस हताशा को भी
मैंने महसूसा
जब तुम्हें पता चला
कि तुम्हारे भीतर पलता भ्रूण
स्त्रीलिंगी है।

ओ मां,
मैं जानती हूं
कि घर की माली स्थिति
खराब है
और मेरे लिए दहेज की चिंता,
समाज के बिगड़ैलों से
मेरी हिफाजत का तनाव...
से घबराकर तुम
मुझे जन्म देना नहीं चाहती

लेकिन मां,
शायद यह
तुम्हें नहीं पता होगा
कि मैं
तुम्हारे अंतरंग क्षणों की साक्षी
बन चुकी हूं
तुम मेरे उस दर्द को भी
नहीं जान सकती
जब तुमने पिता से कहा
कि तुम्हारे गर्भ में
लड़की है और उसे तुम जन्म...

लेकिन मां,
इन सबके बावजूद
मुझे अपनी कोख से जन्म दो न!

अनुराग अन्वेषी
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Wednesday, August 6, 2008

गांधारी की पीड़ा

क्यूँ नहीं कोई समझा मेरी पीड़ा
जब मैने आँख पर पट्टी बाँध कर
किया था विवाह एक अंधे से ।
पति प्रेम कह कर मेरे विद्रोह को
समाज ने इतिहास मे दर्ज किया ।
और सच कहूँ आज भी इस बात का
मुझे मलाल हैं कि ,
मेरी आँखों की पट्टी का इतिहास गवाह हैं
पर
ये सब भूल गए कि

मैने विद्रोह का पहला बिगुल बजाया था
बेमेल विवाह के विरोध मे ।
मेरी थी वो पहली आवाज
जिसको दबाया गया
और इतिहास मे , मुझे जो मै नहीं थी
वो दिखाया गया ।

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Friday, August 1, 2008

क्या शीर्षक दूं इस जिन्दगी की जी हुई सचाई को , नहीं जानती

पिता की मृत्यु के बाद
आया बेटा विदेश से
और बोला माँ से साधिकार
" नहीं रहोगी अकेले तुम
अब यहाँ । तुम अब मेरे
साथ चलोगी "
आँखों मे आशिशो के
आँसू भर कर माँ ने
सर पर हाथ रखा और कहा
" मै कहाँ जाऊंगी बेटा
इस घर का क्या होगा ?
जिसे मैने तुम्हारे पिता
के साथ बनाया है । "
बेटे ने कहा
" माँ अब इस मकान को
रख कर हमे क्या करना है ?

बेच दूँगा मै इसे
सब कागज तैयार है
तुमको बस दस्तखत करने है
मेरे रहते क्यो परेशान हों तुम ? "
वर्षो से जिनके साथ रही हूँ
एक बार उन पड़ोसियो से भी
राय लेलू ये सोच कर
पड़ोस मे गयी माँ
बोले पड़ोसी
" आप तो तकदीर वाली हों
आज कल तो बच्चे पूछते नहीं है
जाओ कुछ बेटे का भी सुख उठाओ
वेसे तकलीफ तो
हम यहाँ भी नहीं होने देते
सालो के सुख दुःख साथ निभाये है
बाक़ी साल भी निभाते
पर आप जाओ
राय यही है हमारी "
माँ के घर को
अपना मकान कह कर
बेचा बेटे ने और पुत्र धर्म
का पालन करते हुये
माँ का टिकट बनवाया
और अपने साथ ले गया
कुछ १२ घंटो बाद
पड़ोसी के घर पर
फ़ोन की घंटी बजी
एअरपोर्ट से पुलिस का फ़ोन था
एक वृद्धा पिछले १२ घंटो से
एअरपोर्ट के विसिटर लाउंज मे
बेठी है उसके पास कोई पासपोर्ट
कोई टिकट और पैसा नहीं है
उसका नाम किसी फ्लाईट मे भी नहीं है
ज्यादा कुछ नहीं बोल पा रही है
अपने बेटे का जो नाम बता रही है
वह सिंगापूर एयरलाइंस से
९ घंटे पहले जा चूका है
उसमे भी इनका कोई नाम नहीं था
आप का फ़ोन नंबर भी
बड़ी मुश्किल से बताया है
तुरंत जाकर पड़ोसी उन्हे घर ले आये
और पिछले दो साल से
अपने बिके हुए घर के पड़ोस मे
बेबसी के आसुओ के साथ
रह रही है एक माँ
और पड़ोसी अपना धरम निभा रहें हें

सांत्वना देने आयी दूसरी माँ ने कहा
मेरी बेटी ने मेरी फ डी अपने खाते
मे जमा कर ली और पूछने पर कहा
" मर जाओगी तो भी तो
मुझे ही मिलगा "
बच्चे तरक्की करते जा रहें हें
पहले माँ बाप को हरिद्वार मे
भूल जाते थे
अब एअरपोर्ट पर भूल जाते है
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