सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
Tuesday, August 31, 2010
Sunday, August 15, 2010
आज़ाद इस दुनिया मे आयी हूँ आज़ाद ही रहूँगी
बहुत बार पूछा जाता हैं नारी से
क्यूँ वो आज़ादी चाहती हैं
और किस से
आज़ादी के पावन पर्व पर
कहती हैं नारी
सबसे पहले मै
आज़ादी चाहती हूँ इस प्रश्न से
कि क्यूँ और किस से मुझे
आज़ादी चाहिये
आज़ादी चाहती हूँ इस मानसिकता से
जहां मेरी सोच को ही दायरों मे बंधा जाता हैं
जहां मेरे विस्तार पर मेरे चरित्र को आंका जाता हैं
जहां मुझ से तर्क मे ना जीतने पर
मेरे शरीर पर निशाना साधा जाता हैं
जहां मेरे हर काम को
नारीवादी का कह कर नकारा जाता हैं
इस आज़ादी कि मै हकदार हूँ
और ले कर रहूंगी
जितना चाहो , जो चाहो
तुम कर के देख लो
आज़ाद इस दुनिया मे आयी हूँ
आज़ाद ही रहूँगी
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
क्यूँ वो आज़ादी चाहती हैं
और किस से
आज़ादी के पावन पर्व पर
कहती हैं नारी
सबसे पहले मै
आज़ादी चाहती हूँ इस प्रश्न से
कि क्यूँ और किस से मुझे
आज़ादी चाहिये
आज़ादी चाहती हूँ इस मानसिकता से
जहां मेरी सोच को ही दायरों मे बंधा जाता हैं
जहां मेरे विस्तार पर मेरे चरित्र को आंका जाता हैं
जहां मुझ से तर्क मे ना जीतने पर
मेरे शरीर पर निशाना साधा जाता हैं
जहां मेरे हर काम को
नारीवादी का कह कर नकारा जाता हैं
इस आज़ादी कि मै हकदार हूँ
और ले कर रहूंगी
जितना चाहो , जो चाहो
तुम कर के देख लो
आज़ाद इस दुनिया मे आयी हूँ
आज़ाद ही रहूँगी
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
Thursday, August 12, 2010
सावन
रुकी रुकी सी बारिशों के बोझ से दबी दबी
झुके झुके से बादलों से -
धरती की प्यास बुझी
घटाओं ने झूमकर , मुझसे कुछ कहा तो है
बूंदे मुझे छू गई -
तेरा ख्याल आ गया
मेघों ने बरसकर ,
तुझसे कुछ कहा है क्या -
बूंदों की रिमझिम में ,भीगा सावन आ गया
Happy Teej to all!!!
झुके झुके से बादलों से -
धरती की प्यास बुझी
घटाओं ने झूमकर , मुझसे कुछ कहा तो है
बूंदे मुझे छू गई -
तेरा ख्याल आ गया
मेघों ने बरसकर ,
तुझसे कुछ कहा है क्या -
बूंदों की रिमझिम में ,भीगा सावन आ गया
Happy Teej to all!!!
Wednesday, August 11, 2010
बदलाव !
सदियों से कैद हैं जो साँसें
अब ज्वाला उगलने लगी हैं.
धधकती दिलों में वो आसें
अब दावानल बनने लगी हैं.
कब तक घुटेंगी ये बेजुबां
अब बगावत भी करने लगी हैं.
वो शीशे की दर औ' दीवारें
अब खिलाफत से दरकने लगी हैं.
कहाँ तक बनेंगी वो मोहरा
अब चालें पलटने लगीं है.
अब होश में आओ ज़माने
जब सदियाँ बदलने लगीं हैं.
जीने दो उनको भी मर्जी से
अब तो दम निकलने लगी है.
कहाँ तक सिखाएं हम तुमको
अब वे इतिहास लिखने लगी हैं.
वही परदे से बाहर निकल कर
अब हुकूमत चलाने लगी है.
अब ज्वाला उगलने लगी हैं.
धधकती दिलों में वो आसें
अब दावानल बनने लगी हैं.
कब तक घुटेंगी ये बेजुबां
अब बगावत भी करने लगी हैं.
वो शीशे की दर औ' दीवारें
अब खिलाफत से दरकने लगी हैं.
कहाँ तक बनेंगी वो मोहरा
अब चालें पलटने लगीं है.
अब होश में आओ ज़माने
जब सदियाँ बदलने लगीं हैं.
जीने दो उनको भी मर्जी से
अब तो दम निकलने लगी है.
कहाँ तक सिखाएं हम तुमको
अब वे इतिहास लिखने लगी हैं.
वही परदे से बाहर निकल कर
अब हुकूमत चलाने लगी है.
Monday, August 9, 2010
ज़रूर आएगा
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित
अंदर-अंदर टूटन
अंतर में घुटन
और मुख पर मुस्कान,
खुशियाँ लुटाना
आदत-सी बन गई है!
इसी आशा में,
इसी प्रत्याशा में
कि शायद
वो एक दिन आएगा
ज़रूर आएगा,
जो नारी को
उसके अस्तित्व की
पहचान कराएगा,
आदर दिलाएगा
उसके अंतर की पीड़ा से
समाज तिलमिलाएगा!
और समाज के
सहृदय जन
एक दिन महसूस करेंगे
उसकी छटपटाहट को,
देंगे नारी को
उसकी पहचान,
देंगे उसे सम्मान
और जीने का अधिकार,
क्योंकि नारी
टूटकर भी
सदैव रही है संपूर्ण!
पक्का भरोसा है उसे
कि एक दिन आएगा,
ज़रूर आएगा
जब खोया हुआ अतीत
होगा उजागर!
इंतज़ार है उसे
उस दिन का
जो उसे न्याय दिलाएगा
देखते हैं,
कब आएगा
वह भाग्यशाली एक दिन!
डॉ.मीना अग्रवाल
अंदर-अंदर टूटन
अंतर में घुटन
और मुख पर मुस्कान,
खुशियाँ लुटाना
आदत-सी बन गई है!
इसी आशा में,
इसी प्रत्याशा में
कि शायद
वो एक दिन आएगा
ज़रूर आएगा,
जो नारी को
उसके अस्तित्व की
पहचान कराएगा,
आदर दिलाएगा
उसके अंतर की पीड़ा से
समाज तिलमिलाएगा!
और समाज के
सहृदय जन
एक दिन महसूस करेंगे
उसकी छटपटाहट को,
देंगे नारी को
उसकी पहचान,
देंगे उसे सम्मान
और जीने का अधिकार,
क्योंकि नारी
टूटकर भी
सदैव रही है संपूर्ण!
पक्का भरोसा है उसे
कि एक दिन आएगा,
ज़रूर आएगा
जब खोया हुआ अतीत
होगा उजागर!
इंतज़ार है उसे
उस दिन का
जो उसे न्याय दिलाएगा
देखते हैं,
कब आएगा
वह भाग्यशाली एक दिन!
डॉ.मीना अग्रवाल
Sunday, August 1, 2010
गांधारी की पीड़ा
क्यूँ नहीं कोई समझा मेरी पीड़ा
जब मैने आँख पर पट्टी बाँध कर
किया था विवाह एक अंधे से ।
पति प्रेम कह कर मेरे विद्रोह को
समाज ने इतिहास मे दर्ज किया ।
और सच कहूँ आज भी इस बात का
मुझे मलाल हैं कि ,
मेरी आँखों की पट्टी का इतिहास गवाह हैं
पर
ये सब भूल गए कि मैने
विद्रोह का पहला बिगुल बजाया था
बेमेल विवाह के विरोध मे ।
मेरी थी वो पहली आवाज
जिसको दबाया गया
और इतिहास मे , मुझे जो मै नहीं थी
वो मुझे दिखाया गया ।
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
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