सदियों से कैद हैं जो साँसें
अब ज्वाला उगलने लगी हैं.
धधकती दिलों में वो आसें
अब दावानल बनने लगी हैं.
कब तक घुटेंगी ये बेजुबां
अब बगावत भी करने लगी हैं.
वो शीशे की दर औ' दीवारें
अब खिलाफत से दरकने लगी हैं.
कहाँ तक बनेंगी वो मोहरा
अब चालें पलटने लगीं है.
अब होश में आओ ज़माने
जब सदियाँ बदलने लगीं हैं.
जीने दो उनको भी मर्जी से
अब तो दम निकलने लगी है.
कहाँ तक सिखाएं हम तुमको
अब वे इतिहास लिखने लगी हैं.
वही परदे से बाहर निकल कर
अब हुकूमत चलाने लगी है.
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
Wednesday, August 11, 2010
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2 comments:
बदलाव ऐसे ही आयेगा।
बहुत सुन्दर ! यह बगावत की चिंगारी जिस दिन हर नारी के मन में दहकने लगेगी सचमुच इतिहास बदल जायेगा ! आशा से भरपूर एक सार्थक रचना के लिये बधाई एवं शुभकामनाएं !
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