सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Wednesday, December 17, 2008

फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!

राष्ट्र प्रेमी जी की ये कविता अतिथि कवि की पोस्ट के तहत पोस्ट की जा रही हैं । आप भी पढ़े और अपने कमेन्ट दे ।
फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!
मैंने समझकर अपना,
अपनत्व के कारण,
की तुम्हारी सेवा,
तुमको खिलाई मेवा,
स्वयं सोकर भूखे पेट,
सावन हो या जेठ,
तुमने की अर्जित शक्ति
मैं करती रही तुम्हारी भक्ति।
मैंने किया प्रेम से समर्पण
सौंपा तन-मन-धन,
तुम बन बैठे मालिक,
मुझे घर में कैद कर,
पकड़ा दिया दर्पण,
मैं सज-धज कर,
करती रही तुम्हारी प्रतीक्षा
तुमने पूरी की,
केवल अपनी इच्छा।
मैंने ही दी तुमको शिक्षा,
सहारा देकर बढ़ाया आगे
तुम फिर भी धोखा दे भागे,
कदम-कदम पर दिया धोखा,
शोषण करने का,
नहीं गवांया कोई मौका।
मैंने साथ दिया कदम-कदम पर,
अपने प्राण देकर भी,
बचाये तुम्हारे प्राण,
तुमने उसे मानकर मेरा आदर्श,
सती प्रथा थोप दी मुझ पर ।
बना लिया मुझको दासी,
वर्जित कर दी मेरे लिए काशी।
लगाते रहे कलंक पर कलंक,
तुम राजा रहे हो या रंक।
दिया निर्वासन दे न पाये आसन।
स्वयं विराजे सिंहासन।
मुझे छोड़ जंगल में,
चलाया शासन।
दिखावा करने को दिया आदर,
पल-पल दी घुटन,
पल-पल किया निरादर।
नर्क का द्वार कहकर,
घृणित बताया।
शुभ कर्मो से किया वंचित,
भोजन,शिक्षा ,स्वास्थ्य,
संपत्ति व मानव अधिकार,
छीन लिया मेरा, सब कुछ संचित।
पैतृक विरासत तुम्हारी,
मैं भटकी दहेज की मारी,
छीन लिया जन्म का अधिकार,
भ्रूण हत्या कर,
छू लिया,
विज्ञान का आकाश।
क्या सोचा है कभी?
मेरे बिन,
बचा पाओगे जमीं?
तड़पायेगी नहीं मेरी कमी?
मेरे बिन जी पाओगे?
अपना अस्तित्व बचाओगे?
हृदय-हीन होकर
कब तक रह पाओगे?
तुम्हारी ही खातिर,
जागना होगा मुझको,
तुम्हारी ही खातिर,
अर्जित करनी होगी शक्ति,
तुम्हें विध्वंस से बचाने की खातिर,
शिक्षा-धन-शक्ति से,
बनूंगी सशक्त!
फिर भी तुम्हें, नहीं करूंगी अशक्त!


© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

5 comments:

पुरुषोत्तम कुमार said...

ये मामला तो कुछ पुराना सा लगता है।

विवेक सिंह said...

उत्कृष्ट लेखन का नमूना .

रेखा श्रीवास्तव said...

यह मामला कभी पुराना नहीं होगा. सिर्फ अपने छोटे दायरे से बाहर आइये और देखिये कि क्या क्या होता है और हो रहा है. सिर्फ अपवादों को छोड़ दें तो आज भी ७० % नारी वही खड़ी है बस बदले हैं तो उसके स्वरूप. आज आत्मनिर्भर है तो क्या अन्दर भी यह सत्य है, सिर्फ १५% मामलों में नारी अपने लिए निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है बाकी अभी भी वह आश्रित है. इतिहास कभी पुराना नहीं होता है खुद को दुहराता है और किसी न किसी स्वरूप में हमेशा ही विद्यमान रहता है.

kumar Dheeraj said...

बहुत सुंदर लिखा है आपने । इसी तरह लिखिए। मेरे ब्लांग पर भी आए। धन्यवाद

Rashi said...

very amazing thought. great flair to write. very nice. please also visit my poety blog http://poetrika.blogspot.com

thanks, rashi