सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Sunday, May 8, 2011

कशमकश



तब नहीं जानती थी मैं 
कि क्यों रोकती है मुझे अम्मी 
दुहाई दे दे कर जमाने की.

क्यों नहीं  खेलने देती मुझे 
हमसायों के संग 
देर तक अकेले में.

अब ,जब मैं 
स्वयं पहुंच गयी हूँ 
अम्मी की उम्र तक. 
और जान गयी हूँ 
उन दुहाइओं  का सच. 

और समझाना चाहती हूँ
अपनी मासूम कली को
तो वो भी
 नहीं  समझ पा रही मेरी बात.

वो भी पूछती है मुझसे
वही सवाल
जो तब 
मैं अपनी अम्मी से पूछती थी.

और अब 
मैं भी जूझती हूँ 
उसी कशमकश से, 
जिससे कभी 
मेरी अम्मी जूझती थी.


 © 2008-13 सर्वाधिकार सुरक्षित!

9 comments:

nilesh mathur said...

बेहतरीन रचना!

नीलांश said...

bahut accha likha aapne....

sandeep sharma said...

बहुत खूब...

क्या सीरत थी, क्या सूरत थी..
पाँव छुए और बात बनी, अम्मा एक मुहूर्त थी...

happy mothers day...

Sawai Singh Rajpurohit said...

बहुत ही बढ़िया रचना बहुत ही अच्छा लगा पढ़ कर

Chaitanyaa Sharma said...

कितनी सुंदर कविता ....सभी प्यारी प्यारी ममाओं को हैप्पी मदर्स डे

डॉ० डंडा लखनवी said...

मातृ-दिवस पर मेरी मंगल कामना स्वीकारिए।
भगवान राम ने शिव-धनुष तोंड़ा, सचिन ने क्रिकेट में रिकार्ड तोड़ा, अन्ना हजारे ने अनशन तोड़ा, प्रदर्शन-कारियों रेलवे-ट्रैक तोड़ा, विकास-प्राधिकरण ने झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ा। तोड़ा-तोड़ी की परंपरा हमारे देश में पुरानी है। आपने कुछ तोड़ा नहीं अपितु माँ की ममता से समाज को जोड़ा है। इस करुणा और ममता को बनाए रखिए। यह जीवन की पतवार है। आपकी रचना का यही सार है।
=====================
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी

Rachana said...

khoob likha hai sunder rachna bahut bahut badhai
rachana

Sadhana Vaid said...

ये चिंताएं सदियों से एक माँ से बेटी को विरासत में मिलती रही हैं और पता नहीं कब तक मिलती रहेंगी ! बहुत सुन्दर रचना ! बधाई !

डॉ. पूनम गुप्त said...

Bahut-bahut dhanyawad!