सच हूँ मैं
एक शाश्वत
कोई बेजान साया नहीं हूँ .
संपदा किसी की
या कोई सरमाया नहीं हूँ.
धडकता है एक दिल
मेरे भी सीने में
पाना चाहती हूँ मै भी वह ख़ुशी,
जो मिलती है उन्मुक्त जीने में
तुम समझते हो मुझे अपनी जागीर
तो यह तुम्हारी ही भूल है.
नही जान पाए मेरे खाबों की ताबीर
तो यह तुम्हारी ही भूल है.
मेरे खाबों में,
जीवन की बुनियादों में
भले ही रंग भरना न भरना.
पर फिर मुझे साया
या अपना सरमाया
समझने की गलती न करना.
© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
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1 comment:
bahut hi achi swabhiman bhari rachna hai swabhiman key bagair jina koi jina nahi hai
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