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अक्सर ही हुआ यूँ
की
अंतस में उमड़ी कई कवितायें ,
और न लिखी जाकर
अंतत आँखों से झर गई ।
अक्सर ही हुआ यूँ
की
कई कहानियाँ उँगलियों के पोरों तक आ गई ,
और न लिखी जाकर
अंतत रोटी के आटे में गूँथ गईं ।
अक्सर ही हुआ यूँ
कि
कोई प्यारा सा गीत
गूंजता रहा मन में ,
होठों के कोरों तक आया ,
और चीख चिल्लाहट में बदल गया ।
अक्सर ही हुआ यूँ
कि
आषाढ़ की पहली बारिश के दिन
दिल की मिटटी से उठी
प्यार की सोंधी गंध
और
चाय पकोडों के साथ
पेट में चली गई ।
अक्सर ही नही
बार बार होता रहा यूँ
मेरी अजन्मी कविताओं ,
अनकही कहानियो ,
अनगाये गीतों और
अनकिये प्यार के साथ ।
फ़िर भी पीछे नही हटी मैं
डटी रही
ज़िन्दगी की आँखों मैं ऑंखें डाले ।
और फ़िर
लिख ही डालीं
मन की कवितायें ,
कह ही डाली
सब कहानियाँ ,
गा ही लिए
कुछ गीत ,
कर ही लिया
थोड़ा सा प्यार ।
कर ही ली
एक बार ही सही
अपनी मनमानी .
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
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7 comments:
फ़िर भी पीछे नही हटी मैं
डटी रही
ज़िन्दगी की आँखों मैं ऑंखें डाले ।
और फ़िर
लिख ही डालीं
मन की कवितायें ,
कह ही डाली
सब कहानियाँ ,
गा ही लिए
कुछ गीत ,
कर ही लिया
थोड़ा सा प्यार ।
कर ही ली
एक बार ही सही
अपनी मनमानी .
bahut hi sundar abhivyakti.
सीमा जी
अक्सर नहीं , कभी कभी होता है कि इतनी अच्छी रचना पढने को मिले.
सुंदर और अच्छी परिकल्पना है
-विजय
बहुत सुंदर....समस्याएं तो आती ही हैं ....पर उनसे लडकर भी हम वह काम कर ही लेते हें ...जो करना चाहें........गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।
फ़िर भी पीछे नही हटी मैं
jeenae aur zindgi jeetnay kae liyae yahii jarurii haen
जो कवितायें झर गयीं, वो असीम के सम्मुख आपका विसर्जन था अपनी अ-दृढ़ मंशा, अपनि असहायता का।
जब सब खो गया तभी तो हो सकी मनमानी।
सुन्दर रचना के लिये आभार।
aap sabhi ka aabhar jinhone itne achchhe comments bheje.
... सुन्दर रचना।
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