सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Sunday, January 25, 2009

यूँ ही

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अक्सर ही हुआ यूँ
की
अंतस में उमड़ी कई कवितायें ,
और न लिखी जाकर
अंतत आँखों से झर गई ।

अक्सर ही हुआ यूँ
की
कई कहानियाँ उँगलियों के पोरों तक आ गई ,
और न लिखी जाकर
अंतत रोटी के आटे में गूँथ गईं ।

अक्सर ही हुआ यूँ
कि
कोई प्यारा सा गीत
गूंजता रहा मन में ,
होठों के कोरों तक आया ,
और चीख चिल्लाहट में बदल गया ।

अक्सर ही हुआ यूँ
कि
आषाढ़ की पहली बारिश के दिन
दिल की मिटटी से उठी
प्यार की सोंधी गंध
और
चाय पकोडों के साथ
पेट में चली गई ।

अक्सर ही नही
बार बार होता रहा यूँ
मेरी अजन्मी कविताओं ,
अनकही कहानियो ,
अनगाये गीतों और
अनकिये प्यार के साथ ।

फ़िर भी पीछे नही हटी मैं
डटी रही
ज़िन्दगी की आँखों मैं ऑंखें डाले ।
और फ़िर
लिख ही डालीं
मन की कवितायें ,
कह ही डाली
सब कहानियाँ ,
गा ही लिए
कुछ गीत ,
कर ही लिया
थोड़ा सा प्यार ।
कर ही ली
एक बार ही सही
अपनी मनमानी .

7 comments:

प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) said...

फ़िर भी पीछे नही हटी मैं
डटी रही
ज़िन्दगी की आँखों मैं ऑंखें डाले ।
और फ़िर
लिख ही डालीं
मन की कवितायें ,
कह ही डाली
सब कहानियाँ ,
गा ही लिए
कुछ गीत ,
कर ही लिया
थोड़ा सा प्यार ।
कर ही ली
एक बार ही सही
अपनी मनमानी .

bahut hi sundar abhivyakti.

विजय तिवारी " किसलय " said...

सीमा जी
अक्सर नहीं , कभी कभी होता है कि इतनी अच्छी रचना पढने को मिले.
सुंदर और अच्छी परिकल्पना है
-विजय

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर....समस्‍याएं तो आती ही हैं ....पर उनसे लडकर भी हम वह काम कर ही लेते हें ...जो करना चाहें........गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।

Anonymous said...

फ़िर भी पीछे नही हटी मैं

jeenae aur zindgi jeetnay kae liyae yahii jarurii haen

Himanshu Pandey said...

जो कवितायें झर गयीं, वो असीम के सम्मुख आपका विसर्जन था अपनी अ-दृढ़ मंशा, अपनि असहायता का।
जब सब खो गया तभी तो हो सकी मनमानी।
सुन्दर रचना के लिये आभार।

सीमा रानी said...

aap sabhi ka aabhar jinhone itne achchhe comments bheje.

कडुवासच said...

... सुन्दर रचना।