सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Friday, January 2, 2009

एक स्त्री के प्रति

हिमांशु पाण्डेय जी की ये कविता अतिथि कवि की पोस्ट के तहत पोस्ट की जा रही हैं । आप भी पढ़े और अपने कमेन्ट दे ।


एक स्त्री के प्रति

स्वीकार कर लिया
काँटों के पथ को
पहचाना फ़िर भी
जकड़ लिया बहुरूपी झूठे सच को
कुछ बतलाओ, न रखो अधर में
हे स्नेह बिन्दु !
क्यों करते हो समझौता ?

जब पूछ रहा होता हूँ, कह देते हो
'जो हुआ सही ही हुआ' और
'
जो बीत गयी सो बात गयी' ,
कहो यह मौन कहाँ से सीखा ?
जो समाज ने दिया
अंक में भर लेते हो
अपने सुख को, मधुर स्वप्न को
विस्मृत कर देते हो
यह महानता, त्याग तुम्हीं में पोषित
कह दो ना, ऐसा मंत्र कहाँ से पाया ?

मन के भीतर
सात रंग के सपने
फ़िर उजली चादर क्यों ओढी है तुमने
हे प्रेम-स्नेह-करुणा-से रंगों की धारित्री तुम
स्वयं, स्वयं से प्रीति न जाने
क्यों छोड़ी है तुमने ?

मैं अभिभूत खडा हूँ हाथ पसारे
कर दो ना कुछ विस्तृत
हृदय कपाट तुम्हारे
कि तेरे उर-गह्वर की मैं गहराई नापूँ
देखूं कितना ज्योतिर्पुंज
वहाँ निखरा-बिखरा है ।

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

6 comments:

विवेक सिंह said...

हिमांशु की ओर से शुक्रिया ! सुन्दर कविता !

Unknown said...

sundar kavita....

Vinay said...

बहुत ख़ूब, अत्यन्त सुन्दर कृति!

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विनय प्रजापति/तख़लीक़-ए-नज़र
http://vinayaprajapati.wordpress.com

Arvind Mishra said...

हिमांशु प्रतिभा संपन्न असीम संभावनाओं से ओत प्रोत रचनाकार हैं आपने इनकी कविता यहाँ देकर बहुत अच्छा किया -आभार !.कविता तो खैर जबरदस्त है ही -संवेदित मनों के लिए नारी सदैव एक पहेली ही तो रही है ! शेक्सपीयर से लेकर जयशंकर प्रसाद तक .....और हिमांशु तक भी ! इस नाचीज की बिसात ही क्या ?

makrand said...

sunder kavita

रेखा श्रीवास्तव said...

नारी के इस रूप के वर्णन में चली कवि कि लेखनी सराहनीय है...... सच तो सच ही रहेगा जो भी लिखेगा यही लिखेगा कि नारी का मूल रूप और स्वभाव क्या है?