सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Friday, October 22, 2010

कुछ लोग औरत को जमीन समझते हैं

कुछ लोग औरत को जमीन समझते हैं
हमेशा पैरो तले रौंदते हैं
कुछ लोग औरत को जमीन समझते हैं
जब चाहते हैं बेचते खरीदते हैं
कुछ लोग औरत को जमीन समझते हैं
फसल पर फसल उगाते हैं
कुछ लोग औरत को जमीन समझते हैं
माँ कहते हैं पर कुपुत्र ही रहते हैं


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9 comments:

vandana gupta said...

बेहद तल्ख सच्चाई।

निर्मला कपिला said...

ाउर कुछ लोग औरत को अच्छी माँ बहन पत्नी भी समझते है। पाँचों ऊगलियाँ बराबर नही होती। शुभकामनायें।

रेखा श्रीवास्तव said...

बेहद कटु सत्य, निर्मला जी रचना ने कुछ कहा है इसमें सभी नहीं होते . अगर सभी ऐसे होते तो जो आज महिलाएं कीतिमान स्थापित कर रही हैं संभव ही न होता. पर ये कुछ जो कर रहे हैं वे मानव जाती के प्रति अन्याय का प्रतीक हैं.

Shikha Kaushik said...

stri-jeevan ki sachchay hi yahi hai.kavita yatharth ke ekdam sameep hai.

Unknown said...

...
कड़वी सच्‍चाई..
समाज के ऐसे ही एक सच पर हमने भी एक किस्‍सा (क्‍या होगा -1, 2) अपने ब्‍लॉग पर लगाया है।
पाठकों की टिप्‍पणियां उत्‍साह बढाने में तथा सोच की दिशा-विदिशा को तय कर पाने में सहायक होगी।
punarjanmm.blogspot.com

dr amit jain said...

न इतने उदास हो ,
कुछ लोग क्या समझते है ,
वो हर जगह सच नहीं होता ,
कुछ मूर्खो को माफ करो ,
फिर जिंदगी में कोई उदाश नहीं होता

@ निर्मला कपिला ,रेखा श्रीवास्तव - मै आप की बातों से पूर्ण रूप से सहमत हू ,

Unknown said...

एक दिशा में लिखी गयी कविता , तारीफ करता हूँ की शब्दों में "कुछ" का इस्तमाल हुआ और लेखक ने पुरे पुरुष को दोषी नहीं पाया

D said...
This comment has been removed by the author.
D said...

These are some of my poems.. i hope ppl will like...

Lovely Poems