आशा जी कि कविताओं मे मुझे वो सब दिखता हैं जो समाज को बदलने का आवाहन । शुक्रिया आशा जी इस कविता के लिये । आप प्रेरणा हैं हमारी पीढ़ी की . आशा जी के ब्लॉग का लिंक हैं
मैं क्या चाहती हूं ?
मुझे अपना ब्याह रचाना है ,
यह भली भांति जानती हूं ,
पर मैं कोई गाय नहीं कि ,
किसी भी खूंटे से बांधी जाऊं
ना ही कोई पक्षी हूं ,
जिसे पिंजरे में रखा जाए ,
मैं गूंगी गुड़िया भी नहीं ,
कि चाहे जिसे दे दिया जाए ,
मैं ऐसा सामान नहीं ,
कि बार बार प्रदर्शन हो ,
जिसे घरवालों ने देखा ,
वह मुझे पसंद नहीं आया ,
मैं क्या हूं क्या चाहती हूं ,
यह भी न कोई सोच पाया ,
ना ही कोई ब्यक्तित्व है ,
और ना ही बौद्धिकस्तर ,
ना ही भविष्य सुरक्षित उसका
फिर भी घमंड पुरुष होने का ,
अपना वर्चस्व चाहता है ,
जो उसके कहने में चले,
ऐसी पत्नी चाहता है ,
पर मैं यह सब नहीं चाहती ,
स्वायत्वता है अधिकार मेरा ,
जिसे खोना नहीं चाहती ,
जागृत होते हुए समाज में ,
कुछ योगदान करना चाहती हूं ,
उसमे परिवर्तन लाना चाहती हूं ,
वरमाला मैं तभी डालूंगी ,
यदि किसी को अपने योग्य पाऊँगी |
आशा
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5 comments:
बिल्कुल आज यही होना चाहिये और हो भी रहा है बेशक प्रतिशत कम है मगर इंकलाब इसी तरह आता है।
सच में जो लोग ये कहते हैं कि आजकल की नारियाँ आधुनिकता में अंधी होकर स्वतंत्रता और अधिकारों की बात करने लगी हैं, उन्हें आशा जी की इस कविता का जवाब देना चाहिए. वे इतनी उम्रदराज होकर भी इतनी जागरूक हैं... और उन्होंने जो बात कही है वो आज से नहीं सदियों से कहती आयी हैं और हर युग में पुरुष प्रधान समाज यही कहता आया है कि औरतें बिगडती जा रही हैं.
मै आप से शत प्रतिशत सहमत हूँ इतना आत्म विश्वाश हर नारी के मन में होना चाहिए सुंदर भावाव्यक्ति के लिए बधाई
bilkul sahi kaha hai aapne. aisa hi hona chahiye...
आत्म विश्वाश हर नारी के मन में होना चाहिए सुंदर भावाव्यक्ति के लिए बधाई
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