सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Monday, February 22, 2010

नारी का एक और सच !

जीवन समर्पित किया 
बचपन से बुढ़ापे तक 
बेटी बनी,
एक गर्भ से,
एक घर में, 
जन्म लेकर 
पली बढ़ी 
सब कुछ किया.
पर कही पराया धन ही गयी.
बेटा सब कुछ पा  गया
उसको  कहा--
ऐसा 'अपने घर ' जाकर करना
 ये मेरे वश में नहीं.
पराया धन
अपनी समझ से
सब कुछ देकर विदा किया
जिनकी अमानत थी,
उनको बुलाकर सौप दिया.
इस घर में आकर 
घर की दर औ' दीवारें
अपनेपन से सींच दीं,
यहाँ भी सब कुछ किया
पति के परिवार  में 
खोजे और सोचे 
अपने रिश्ते
अपनापन और अपना घर
जिसकी बात बचपन से सुनी थी.
किन्तु 
सास न माँ बन सकी,
पिता , बहन औ' भाई 
का सपना अधूरा ही रहा.
इस यथार्थ की चाबुक
'क्या सीखा  'अपने घर' में?'
'वापस 'अपने घर ' जा सकती हो.'
'अपने घर ' की बात मत कर'
'अपना घर' समझ होता तो?'
जब बार बार सुना औ' हर घर में सुना
खुद को कटघरे में खड़ा किया
मेरा घर कौन सा है?
जहाँ जन्मी पराई थी,
अपने घर चली जायेगी एकदिन.
जहाँ आई वहाँ भी......
अपने घर को न खोज पायी.
 जन्म से मृत्यु तक
बलिदान हुई 
पर एक अपने घर के लिए
तरसते तरसते
रह गयी
क्योंकि वह तो
सदा पराई ही रही.
किसी ने अपना समझ कहाँ?
बिना अपने घर के जीती रही, 
मरती रही जिनके लिए,
वे मेरे क्या थे?
एक अनुत्तरित सा  यक्ष प्रश्न 
हमेशा खड़ा रहेगा.

12 comments:

mukti said...

सच है...औरत का अपना कोई घर नहीं होता...

RADHIKA said...

इसलिए मेरी बेटी को न तो मैं पराया धन कहूँगी न कहने दूंगी .यह घर उसका घर हैं हमेशा रहेगा और शायद जब ये घर उसका अपना घर होगा तो ही वह जहाँ जाएगी विवाह बाद वह भी उसका अपना कहलायेगा .
बहुत अच्छी रचना

Anonymous said...

saarthak kavitaa

रेखा श्रीवास्तव said...

राधिकाजी,

बहुत सही कहा आपने, मेरे ख्याल से बेटी और बहू दोनों रूप में वह दोनों घरों के लिए समर्पित होती है, फिर उसके घर कैसे बँट जाते हैं? वह तो दो घरों कोजोड़ती है अपने को समर्पित करके. बेटी के लिए कम से कम माँ-बाप के रहते तो उसका ही घर रहने देने चाहिए. अपने इस घर के लिए उसकी भावनाएं समझनी चाहिए.

Mithilesh dubey said...

आपकी ये कविता किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त दिखी , जैसा आप ने बताया कि सासु मा ना बन सकी , भाई ना मिल सका , तो ऐसा हर एक के साथ तो होता नहीं । आपके कहने और ना कहने से क्या होगा , जो सच्चाई है उसे हम और आप कभी नहीं मिटा सकते । आप कह रही है कि नारी का कोई अपना घर नहीं होता , तो ये बात भी सरासर गलत है । शादी के बाद ससुराल ही घर होता है ।

रेखा श्रीवास्तव said...

मिथलेश भाई,
सो सच है सो सच है, ये एक आम नारी की कहानी है, मायके में पराया धन होती है, ससुराल में उसको अपने घर का ताना मिलता है मैके के नाम पर. सबकी कहानी एक सी नहीं होती. वैसे तो ससुराल ही घर है , किन्तु कितने प्रतिशत के लिए आप कह सकते हैं की उसको ससुराल में माँ बाप , भाई और बहन मिलते हैं. अपना घर सिद्ध करने में वह भस्म हो जाती है.

Mithilesh dubey said...

आदरणीय रेखा दीदी
ठिक है मैं आपका कहना मान लेता हूँ , लेकिन इन सब के लिए जिम्मेदार कौन होता है , अगर आप देखेंगी तो इन सबका जिम्मेदार भी खूद महिलायें ही होती है , मुझे तो साफ-साफ लगता है कि महालियें खूद अपनी दुश्मन होती हैं , या सफ शब्दो मे कहें तो नारी ही नारी की दुश्मन है ।

रेखा श्रीवास्तव said...

इन सबके लिए दोषी है हमारा परिवेश, हमारी दोहरी मानसिकता और असंतुलित व्यवहार. नारी ही नारी की सबसे बड़ी आलोचक है इसमें दो राय नहीं है लेकिन जो बेघर है इसमें उसका क्या कुसूर है? इस विभीषिका में जूझने वाली ६० प्रतिशत महिलायें इस त्रासदी की शिकार है. इस घर के ताने को सुनाने की कोई उम्र नहीं होती. इसको सिर्फ सास ससुर ही नहीं पति भी इसका सहारा लियाकरते हैं.

Mithilesh dubey said...

पता नहीं आप लोग किस दोहरी मानसिकता की बात करती रहती हैं समय-समय पर । जिस ताने की बात कर रही हैं आप मुझे तो नही लगता कि ऐसा होता भी होगा , एक काहवात हैं हमारे यहाँ कि सावन कें अधें को सब हरा-हरा ही दिखाई देता है । जो प्यार आपको मिलता है कभी उसकी भी बड़ाई करिए अपनि कविता के माध्यम से , और उस कविता में पति के साथ-साथ मिले ससुराल वालो से मिलें प्यार की व्याख्या करिए , अब कृपया ये मत कहियेगा कि प्यार तो मिलता ही नहीं । बातें तो बेटा भी सुनता है अपने बाप से तो आप कहेंगी कि यह ताने दिये जा रहे हैं , ऐसा तो नहीं होता ना रेखा दीदी , उम्मिद है कि आप मेरी बातो को समझ रहीं होंगी ।

अंजना said...

बहुत अच्छी रचना है ।

Anonymous said...

बार बार एक ही बात को दोहराने से कोई लाभ नहीं होता मिथिलेश क्युकी नारी नारी दुश्मन कभी नहीं होती , बल्कि नारी को नारी कि दुश्मन इस समाज कि मानसिकता बनाती हैं । सास को घर पर अपना अधिकार चाहिये और बहु को अपना क्युकी दोनों का घर वही हैं । दोनों के पति कहते हैं हम को बीच मे मत डालो अपने आप निपट लो । शिक्षा कि कमी दोनों स्त्रियों मे असुरक्षा कि भावना जागृत करती हैं और वो घर पर वर्चस्व कि लड़ाई मे आपस मे एक दूसरे से ताल मे नहीं बीता पाती । बेटी को पराया धन क्यूँ कहा जाता हैं ?? इस का का औचित्य हैं आप कहेगे कि भारतीये संस्कृति यही हैं हैं हम कहेते हैं भारतीये संस्कृति अगर यही हैं तो गलत परिभाषित हैं , परिभाषाये सही करो । जो गलत हुआ हैं उसको सहने और समझोते करते रहने कि जगह बराबरी कि बात हो स्त्री और पुरुष मे बेटी और बेटे मे वो बराबरी जो हमारा संविधान देता हैं क्युकी भारतीये संस्कृति कि मुलभुत गलतियों को सुधारने के लिये ही शायद हमारे बड़ो नए संविधान कि रचना कि हैं और बड़ो कि बात मानना भी हमारी संस्कृति का ही एक पहलु हैं । भारतीये संविधान मे बेटी और बेटे के समान अधिकार हैं और जहां नहीं हैं { क्युकी जब संविधान बना था तब से समय आगे जा चूका हैं } वहाँ संविधान मे भी "सुधार " का प्रावधान संविधान पारित करने वालो नए दिया हैं । क्युकी ये नारी का कविता ब्लॉग हैं तो हम तो नारी कि भोगी हुई सत्यता ही लिखेगे ताकि चेतना आये ।

ZEAL said...

Aurat ka dil itna vishal hota hai ki samast prithvi bhi agar 'ghar' ban jaye to chhoti pad jaye ek aurat ke liye.

Garv hai stri hone par.

Divya (zeal)