होली की रंगोली
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बुरा न मानो होली है,
ये मस्तानों की टोली है,
रंगों को बौछार करें तो
गाली भी हंसी ठिठोली है!
सतरंगी होली के रंगों से सजे थाल में मेरी हार्दिक शुभकामनाएं आपके नजर हैं.
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
Friday, February 26, 2010
Monday, February 22, 2010
नारी का एक और सच !
जीवन समर्पित किया
बचपन से बुढ़ापे तक
बेटी बनी,
एक गर्भ से,
एक घर में,
जन्म लेकर
पली बढ़ी
सब कुछ किया.
पर कही पराया धन ही गयी.
बेटा सब कुछ पा गया
उसको कहा--
ऐसा 'अपने घर ' जाकर करना
ये मेरे वश में नहीं.
पराया धन
अपनी समझ से
सब कुछ देकर विदा किया
जिनकी अमानत थी,
उनको बुलाकर सौप दिया.
इस घर में आकर
घर की दर औ' दीवारें
अपनेपन से सींच दीं,
यहाँ भी सब कुछ किया
पति के परिवार में
खोजे और सोचे
अपने रिश्ते
अपनापन और अपना घर
जिसकी बात बचपन से सुनी थी.
किन्तु
सास न माँ बन सकी,
पिता , बहन औ' भाई
का सपना अधूरा ही रहा.
इस यथार्थ की चाबुक
'क्या सीखा 'अपने घर' में?'
'वापस 'अपने घर ' जा सकती हो.'
'अपने घर ' की बात मत कर'
'अपना घर' समझ होता तो?'
जब बार बार सुना औ' हर घर में सुना
खुद को कटघरे में खड़ा किया
मेरा घर कौन सा है?
जहाँ जन्मी पराई थी,
अपने घर चली जायेगी एकदिन.
जहाँ आई वहाँ भी......
अपने घर को न खोज पायी.
जन्म से मृत्यु तक
बलिदान हुई
पर एक अपने घर के लिए
तरसते तरसते
रह गयी
क्योंकि वह तो
सदा पराई ही रही.
किसी ने अपना समझ कहाँ?
बिना अपने घर के जीती रही,
मरती रही जिनके लिए,
वे मेरे क्या थे?
एक अनुत्तरित सा यक्ष प्रश्न
हमेशा खड़ा रहेगा.
बचपन से बुढ़ापे तक
बेटी बनी,
एक गर्भ से,
एक घर में,
जन्म लेकर
पली बढ़ी
सब कुछ किया.
पर कही पराया धन ही गयी.
बेटा सब कुछ पा गया
उसको कहा--
ऐसा 'अपने घर ' जाकर करना
ये मेरे वश में नहीं.
पराया धन
अपनी समझ से
सब कुछ देकर विदा किया
जिनकी अमानत थी,
उनको बुलाकर सौप दिया.
इस घर में आकर
घर की दर औ' दीवारें
अपनेपन से सींच दीं,
यहाँ भी सब कुछ किया
पति के परिवार में
खोजे और सोचे
अपने रिश्ते
अपनापन और अपना घर
जिसकी बात बचपन से सुनी थी.
किन्तु
सास न माँ बन सकी,
पिता , बहन औ' भाई
का सपना अधूरा ही रहा.
इस यथार्थ की चाबुक
'क्या सीखा 'अपने घर' में?'
'वापस 'अपने घर ' जा सकती हो.'
'अपने घर ' की बात मत कर'
'अपना घर' समझ होता तो?'
जब बार बार सुना औ' हर घर में सुना
खुद को कटघरे में खड़ा किया
मेरा घर कौन सा है?
जहाँ जन्मी पराई थी,
अपने घर चली जायेगी एकदिन.
जहाँ आई वहाँ भी......
अपने घर को न खोज पायी.
जन्म से मृत्यु तक
बलिदान हुई
पर एक अपने घर के लिए
तरसते तरसते
रह गयी
क्योंकि वह तो
सदा पराई ही रही.
किसी ने अपना समझ कहाँ?
बिना अपने घर के जीती रही,
मरती रही जिनके लिए,
वे मेरे क्या थे?
एक अनुत्तरित सा यक्ष प्रश्न
हमेशा खड़ा रहेगा.
Sunday, February 21, 2010
स्त्री का सच
स्त्री सुहाती हैं
कब
जब
नयनो को
झुका कर
ओठ को दबा कर
इठलाती हैं
रति बन जाती हैं
या
आँखों मे आंसूं
झुकी हुई गर्दन
सहनशीलता कि प्रतिमा
बन जीती जाती हैं
जिन्दगी शांति से चलती रहे
चाहे स्त्री उसमे कितनी भी
तपती रहे
सच बोलने से
हर स्त्री को
मना किया जाता हैं
और रहेगा
क्युकी
स्त्री का सच
अपच
कल अपनी एक महिला मित्र से बात हुई जो जिन्दगी से परेशान हैं जबकि उसके पास सब कुछ हैं , पति भी , बच्चे भी । दुनिया कि नज़र मे मृदुभाषी हैं सर्व गुणी हैं , शांत हैं , धीर गंभीर हैं और खुश हैं क्युकी दुनिया वो देख रही हैं जो उसका बाहरी आवरण हैं । जब अविवाहित थी तब सौतेली माँ के आतंक से त्रस्त थी , सबने कहा शादी कर लो एक घर तुम्हारा अपना होगा । शादी हुई , बेटिया हुई लेकिन सुख और शांति कि तलाश आज भी बदस्तूर जारी हैं और ये सच वो किसी से नहीं कह सकती क्युकी स्त्री का सच अपच
© 2008-10सर्वाधिकार सुरक्षित!
Sunday, February 14, 2010
पहला प्यार (वेलेंटाइन दिवस पर)
पहली बार
इन आँखों ने महसूस किया
हसरत भरी निगाहों को
ऐसा लगा
जैसे किसी ने देखा हो
इस नाजुक दिल को
प्यार भरी आँखों से
न जाने कितनी
कोमल और अनकही भावनायें
उमड़ने लगीं दिल में
एक अनछुये अहसास के
आगोश में समाते हुए
महसूस किया प्यार को
कितना अनमोल था
वह अहसास
मेरा पहला प्यार !!
आकांक्षा यादव © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
इन आँखों ने महसूस किया
हसरत भरी निगाहों को
ऐसा लगा
जैसे किसी ने देखा हो
इस नाजुक दिल को
प्यार भरी आँखों से
न जाने कितनी
कोमल और अनकही भावनायें
उमड़ने लगीं दिल में
एक अनछुये अहसास के
आगोश में समाते हुए
महसूस किया प्यार को
कितना अनमोल था
वह अहसास
मेरा पहला प्यार !!
आकांक्षा यादव © 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
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