सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Wednesday, May 13, 2009

ईश्वर बस बेटी न देना

लडकियां इतना कैसे लड़ लेती हैं
कैसे अपने लिये हर जगह
जगह बना लेती हैं ??
कैसे जीतना हैं उनको
अपना मिशन बना लेती हैं ??
कैसे कम खाना खा कर भी
सेहत सही रहे ये जान लेती हैं ??

बहुत आसन हैं
जब माँ के पेट मे होती हैं
तभी से सुनती हैं
माँ की हर धड़कन कहती हैं
इश्वर लड़की ना देना
जो कष्ट मैने पाया
वो संतान को पाते ना देख पाउंगी
हे विधाता बेटी ना देना

बस यही सुन सुन कर नौ महीने मे
माँ के खून के साथ
सरवाईवल ऑफ़ फीटेस्ट
की परिभाषा
को जीती हैं लडकियां

और

जिन्दगी की आने वाली लड़ाई के लिये
अपने को तैयार कर लेती हैं

हर सफल लड़की के पीछे
होती हैं एक माँ की
कामना की
ईश्वर बस बेटी न देना



कुछ कमेंट्स पढ़ने के बाद ये लिखना जरुरी होगया हैं की ये किसी माँ की कामना नहीं हैं की उसके बेटी ना हो ये एक माँ का दर्द हैं जो ईश्वर से बेटी न देने की प्रार्थना कर रहा हैं कल मेरी एक दोस्त ने बताया था की वो अपनी बेटी के लिये विवाह योग्य वर देख रही हैं पर नहीं मिल रहा और क्युकी उसकी शादी से ले कर उसकी बेटी की शादी तक मे भी समाज मे कुछ नहीं बदला हैं । आज भी बेटी की शादी केवल और केवल पैसे से ही होती हैं ।
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

26 comments:

Himanshu Pandey said...

एक बेहतर और दूसरा ही पहलू दिखा इस रचना में । आभार ।

विजय तिवारी " किसलय " said...

रचना जी
अभिवंदन
पता नहीं क्यों आपकी रचना पढ़ कर निश्चित नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं आपकी अभिव्यक्ति से सहमत हूँ अथवा नहीं.
- विजय

रेखा श्रीवास्तव said...

रचना बहुत बहुत बधाई,

इस यथार्थ को इन पंक्तियों में डाल कर वो सच सामने ला दिया जिसको हम झुठला नहीं सकते हैं. इस सच के साथ ही हर माँ जीती है और आज कि बेटी भी इस बात को पूरी तरह से साबित कर रही हैं.

रेखा श्रीवास्तव said...

विजय जी,
हो सकता है कि आपको इससे सहमत होने में देर लगे क्योंकि आपकी सोच एक माँ कि सोच नहीं बन सकती है. माँ कि यह सोच उसकी मजबूरी है, वह नहीं चाहती कि जो उसने झेला है उसको उसकी बेटी भी झेले. फिर तथाकथित घर वाले भी बेटी से ज्यादा बेटा चाहते हैं न. इसके अपवाद भी हैं. पर सत्य यही है.

कुश said...

पूर्ण रूप से संपन्न परिवारों में भी कई बार माँ चाहती है बेटी मत देना.. पता है क्यों? क्यों दो बेतिया तो पहले से ही है..
मैंने एक परिवार को देखा है जिनमे दो लड़किया थी तीसरी बार उनके यहाँ दो जुड़वाँ लड़किया हो गयी.. चौथी बार में विशुद्ध भारतीय तरीको से लिंग परिक्षण करवाया गया.. फिर लड़की थी.. अंजाम तो कोई भी बता सकता है क्या हुआ होगा.. अब काफी साल हो चुके है मुझे उनके बारे में कुछ पता नहीं... पर पता नहीं वह क्या चल रहा होगा..

अनिल कान्त said...

sach hi to hai ...yahi to soch hai

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

आपकी कविता में समाज में लडकियों की स्थितियों पर एक गम्‍भीर चिंतन झलकता है एवं एक चुनौती भी।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

शेफाली पाण्डे said...

कुश से सहमत ...मैंने भी ऐसे बहुत परिवार देखे हैं ...

मीनाक्षी said...

समाज के कुछ हिस्से में शायद अभी यही मानसिकता है... लेकिन समय बदल भी रहा है...अपने आसपास ही देखा है कि पहली बेटी की संगी साथी के लिए दूसरी बेटी गोद लेने की भी बात होती है... सुनकर अच्छा लगता है लेकिन ऐसा सोचना अभी शुरु हुआ है....
कविता की भाषा शैली प्रभावशाली तो है ही भाव भी प्रभावित कर रहा है.

mehek said...

bahut sahi kaha rachana ji,ye soch abhi tak badi nahi nahi,jab tak ek maa ye soch na badle,ek beti ko aise hi jeena hoga survival of the fittest ke antargat.ek prabhavi rachana ke liye bahut bdhai.

vandana gupta said...

aapki rachna sochne ko majboor karti hai...ek ma ka dar aur dard dono ke prati..........vaise har maa sirf yahi chahti hai ki uski beti ko sare jahan ki khushiyan milein aur jo usne saha wo na sahe........lekin har maa sirf ye hi nhi mangti ki beti na dena...........kuch maa ho sakti hain jinke bahut hi katu anubhav hon magar ab soch badal rahi hai aur mansikta bhi .

RAJNISH PARIHAR said...

आपकी कविता और उसकी प्रतिक्रिया में आई कम्मेंट्स से सपष्ट है आपने कितने महत्त्व पूरण विषय पर लिखा है...!इतनी तरक्की के बाद भी बेटी न होने की कामना करना समाज का दुर्भाग्य नहीं तो और.. क्या है..?लड़कियां नित नई नई मंजिलें.. हासिल कर रही है... हर विधा में अपने को स्थापित करके दिखाया है फिर ऐसी कामना क्यूँ?

shivraj gujar said...

bahut hi badiya. ek maa ka dard seedha dil tak utar gaya. ek shabd uski peeda ko bayan kar raha hai or saath hi nari ke sahas ki bhi jhalak hai isamen.

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

मेरी एक ११ साल की बेटी है इकलौती, मेरा परिवार सम्पन्न की श्रेणी में गिना जाएगा शायद . लेकिन आज तक पुत्र की किसी को चाह नहीं हुई . और मेरी बेटी बेटो से ज्यादा हमारा नाम रोशन करेगी यह विश्वास है .

Asha Joglekar said...

मेरे खयाल से बेडी ना देना ये मां की इच्छा नही । बेटी को उसका हक ना दे पाने की विवशता है । सुंदर कविता.

Anonymous said...

आपकी बात से सहमत हूँ. पर धीरे धीरे समाज का रवैया बदल रहा है.

आज की तारिख में लड़कियां जैसी मंजिलों को छू रहीं हैं उससे तो यही लगता है की सुबह होने वाली है.

mukti said...

एक माँ की मजबूरी को बहुत सजीवता से सामने रखा है आपने ...

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

"उसकी शादी से ले कर उसकी बेटी की शादी तक मे भी समाज मे कुछ नहीं बदला हैं । आज भी बेटी की शादी केवल और केवल पैसे से ही होती हैं ।"
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ये ही समाज का सत्य है। हमारे ही एक परिचित हैं, उनकी बेटी ने मेडीकल की पढ़ाई की है, आज सर्जन है, पैसे से कमजोर होने के कारण उसकी शादी में दिक्कत आ रही है।
ऐसे में हम क्या बस बातें ही मारते रहेंगे? नारियाँ पुरुषों को दोष देंगीं, पुरुष महिलाओं को और समाज की समस्या ज्यों की त्यों बनी रहेगी।
कुछ करो......

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

For survival of human species, both the gender of human beings need to survive & we all must respect the Female for their productive capacity.
While the Males have always enjoyed an upper level of comfort in every society.
Nice poem Rachna ...

target said...

आपकी बात काफी हद तक सही है लेकिन जमाना बदल रहा है। तेजी से न सही धीरे धीरे ही सही। मैं ऐसे बहुत से परिवारों को जानता हूं जो आजकल बेटी की चाह रखते हैं। मेरे ज्यादातर मित्रों का भी यही कहना है कि उनकी पहली चाहत बेटी ही है। अब पुराने समय वाली बात नहीं रही। लोग हकीकत को समझ रहे हैं और हकीकत यही है कि मां-बाप को लेकर बेटी जितनी केयरिंग होती है बेटे नहीं।

Anonymous said...

thanks to all readers for reading and commenting on my poem

राजकुमार ग्वालानी said...

नारी के अंर्तमन के दर्द को आपने अच्छी तरह से शब्दों में बांधा है। इतनी अच्छा रचना के लिए रचना को बधाई। साथ ही हमारा ऐसा मानना है कि बेटी ही ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है जिस घर में बेटी नहीं होती है, दरअसल में वह घर-घर नहीं होता है। हमने अपनी बिटिया स्वप्निल को हमेशा एक बेटे की तरह माना है। हमने कभी बेटे की चाह नहीं की थी, पर भगवान ने न चाहते हुए भी हमारी बिटिया के होने के छह साल बाद एक बेटा दे दिया। बेटी लक्ष्मी का रूप होती है, इसकी जो कदर नहीं करता है, वह एक दिन दर-दर भटकता है।

Dr. Amar Jyoti said...

मर्मस्पर्शी!मगर कठोर अप्रिय यथार्थ से जूझने की ज़िद और हौसला भी चित्रित किया गया होता तो शायद और भी बेहतर होता। बधाई

Anonymous said...

लडकियां इतना कैसे लड़ लेती हैं
कैसे अपने लिये हर जगह
जगह बना लेती हैं ??
कैसे जीतना हैं उनको
अपना मिशन बना लेती हैं ??
कैसे कम खाना खा कर भी
सेहत सही रहे ये जान लेती हैं ??

ar amar jyoti
kavita shuru hi vahaan sae hui haen nirantar jhujhna grabh sae laekar aagaetak

kab yae band hoga

कंचन सिंह चौहान said...

जो भी हो...! यह सही है कि हर बेटी के पीछे एक माँ होती है और वो माँ नही चाहती कि जो उसने झेला वो उसकी बेटी झेले...! मैं अपना जानती हूँ, मेरी माँ ने खुद के लिये एक मुकाम बनाया और मेरे लिये इस तरह खड़ी हुई कि जो उसने झेला वो मुझे ना झेलना पड़े ...! मगर उन्होने कभी इस बात कले लिये दुखी नही होने दिया कि मैं बेटी हूँ...! I always thank my mother for such kind of treatment..!

डा.संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी said...

परिवर्तन चर्चाओन से नही हो सकता. परिवर्तन के लिये आवश्यक है, शिक्षा व पारिवारिक सम्पत्ति मे अधिकार. आज भी कितने परिवार बेटियो को समपत्ति मे से अधिकार दे रहे है. निर्वाह व्यय की कानूनी व्यवस्था को समाप्त कर बेटी को पैत्रिक सम्पति मे अधिकार देकर ही इस स्थिति को बदला जा सकता है.
पैत्रिक सम्पति मे अधिकार छोडकर जाने पर दूसरे घर मे बराबर का सम्मांजनक अधिकार नही मिल सकता. और ऐसे कानून भी ससुराल वालो पर अत्याचार के समान ही होंगे. पैत्रिक सम्पत्ति मे अधिकार मिल जाने पर दहेज अपने आप समाप्त हो जायेगा. एक बात और ध्यान रखनी होगी शादी के लिये लड्का देखा जाय न कि उसके पास सम्पत्ति, यदि आप सम्पत्ति देखते है, तो वह भी धन की माँग करे तो क्या बुरा है?