सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Monday, March 30, 2009

प्रेम - व्यापार

देव हो या दानव

वासना का समुद्र

जब - जब उफनता हैं

सयम का कगार टूट जाता हैं ।

सुंदर प्रकाशवान मछली

सम्मोहन के जाल मै

स्वयं फँस जाती हैं ।

तामसी - वृत्तियाँ

प्यार के अनछुये आकाश पर

काले बादल बन छा जाती हैं ।

चारो और फैले

तामसी कोहरे के भीतर

बलात्कार होता हैं

चीखे उभरती हैं

पर

सत्यवती को बचाने वाला

कोई नहीं आता ।

चीखे मौन हो जाती हैं

वासना तृप्त

चलता रहता हैं

संसार का प्रेम - व्यापार



कमेंट्स यहाँ दे प्रेम - व्यापार


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Friday, March 27, 2009

मै अपनी धरती को अपना वोट दूंगी आप भी दे कैसे ?? क्यूँ ?

शनिवार २८ मार्च २००९
समय शाम के ८.३० बजे से रात के ९.३० बजे
घर मे चलने वाली हर वो चीज़ जो इलेक्ट्रिसिटी से चलती हैं उसको बंद कर दे
अपना वोट दे धरती को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिये
पूरी दुनिया मे शनिवार २८ मार्च २००९ समय शाम के .३० बजे से रात के .३० बजे

ग्लोबल अर्थ आर { GLOBAL EARTH HOUR } मनाये गी और वोट देगी अपनी धरती को
इस विषय मे ज्यादा जानकारी यहाँ उपलब्ध हैं

जीवन के भीतर स्त्री


लम्बी चौडी जायदाद नहीं
एक घर चाहती हैं वे केवल
शायद पूरा घर भी नहीं
बस एक चुल्हा ताकि
घर भर को खिला कर
संतुष्ट हो, सो सके
कल के भोजन के बारें में
फिक करते हुये।


चाँद की कहानी कहते हुये वे चाँद पर जा पहुँचती हैं
अपनी कमनियता के किस्सों को
हवाओं में बिखरते हुये
कुछ न करते हुये भी
बहुत कुछ कर रही होती हैं वे
अपनी सृजनशीलता से रच रही होती है
स्वपनिले संसार की रूपरेखा


हमेशा बचाये रखा है उन्होनें
घर का सपना
आँधी तुफानों के बीच भी
जितनी शिद्दत से वे प्रेम करती है
उतनी ही शिद्दत से घृणा
मासुमियता, उदारता, करुणा के विष्षणों के साथ
वे बेहद खूबसूरत दिखाई पडती हैं


कभी कभी वे सच के इतने करीब होती हैं
की छू सकती हैं अपनी आत्मा का पवितर जल
कभी वे बिना पक्षपात के इतनी झूठी हो सकती है
की आप दुनिया जहान से नफरत करने लगें
अपनी अनेकता के साथ
राधा, मीरा, सीता का बाना ओढती हैं
एक देश में अरृणा राय तो
दुसरे देश में सु कि
किसी तीसरे देश में शीरीन आबादी बन
अपने आप को सिदध कर रही होती हैं

उन्कें यहाँ हक्कीत और स्वपन में अधिक अंतर नहीं है
यही एकमात्र कारण है
हक्कीत को सपना और
सपने को हक्कीत समझनें में वे भूल कर देती हैं
जीवन का नब्बे प्रतिशत प्रेम
उन्के करीब से हो कर गुजरता है


उन्का साथ इन्दरधनुष, तितली, फुल, कविता,
खुश्बू, घटाओं और जिंदगी का साथ है
उन्की आखें जिस क्षण तुम्हारी ओर
देखती है वे क्षण ठहरे रहते हैं हमेशा
तमाम उमर तुम उन क्षणों के बीच से होकर
गुजरना चाहते हो तुम


कभी वे मुस्कुराहट बन
तस्वीर के चारों कोनों में फैल जाती हैं
तो कभी आँसुओं की तरह
शून्य में सिमट जाती हैं
स्त्री कभी बिखरती नहीं
अरबों खरबों अणुओं में जुडती नहीं
बिम्ब से मूरत में तबदील हो्
माँ, बहन, बेटी बन जाती है
और कविता के अंदर
हमेशा जीवित रहती हैं
संवेदना बन कर।

Friday, March 13, 2009

होली

फागुन आया उड़ रहाअबीर और गुलाल
होली में सब मस्त हुएकिसका पूछे हाल


बसंती रंगो मे डूबे
khila हास परिहासफागुन में मदमस्त हुए सबछाया उल्लास
सरसों फूली टेसू महकाखिला हारसिंगार


पीली चुनर ओढ़करप्रकृति ने किया श्रृंगार .

Tuesday, March 10, 2009

होली के पावन पर्व की हिन्दी ब्लॉग परिवार को बधाई ।

*रोशनी*

मन के अंधेरों में भटकोगे तो रोशनी कैसे पाओगे ,
सोचने को तो बहुत है पर कुछ करके तो दिखाओगे ,
कल्पना की उड़ान तज कर अब यथार्थ अपना लो ,
तभी तो संकट- संघर्ष में धरा पर पैर जमालोगे.।

साहस करो तो मन के अंदर भी तेज ही पाओगे ,
तन की तपन तज तब ही तो तुम आगे आओगे,
जीवन की सूखी फुलवारी में आशा के दीप जलेंगे ,
विद्युत् लय से तिमिर चीरकर स्वप्न पूरा पाओगे।


*अलका मधुसूदन पटेल*


Monday, March 9, 2009

औरतें औरतें नहीं हैं !

कविता का मन

ये पोस्ट कविता वाचक्नवीजी की मेहनत हैं । आप भी पढे और अपने विचार दे



बचपन
में खेलते खेलते या खाते-खाते, या कई बार सोते में ही (मुख्य तो यही क्रम होता है, उस उम्र में) एक आवाज, बल्कि आवाज़ भी क्या चीत्कार सुनाई पड़ा करती थी, यह चीत्कार इतनी भयंकर इतनी तीखी होने के साथ साथ इतनी दीर्घकालिक होती कि कई बार उस चीखने वाले/वाली से ही घृणा से भर जाता मन।उस चीख /चीत्कार की खोज में दौड़ते एक दिन पाया कि .... की बस्ती के कुछ लोग एक सूअर/ सूअरी को पकड़ने के लिए धड़े दल में उस मोहल्ले से इस मोहल्ले तक की घेरेबंदी वाली दौड़ लगा रहे हैं और हमें घृणित प्रतीत होने वाला वह प्राणी भाग भाग कर बेहाल दुरावस्था में है| हर बार अंत में वह पकडा जाता /जाती। अंत उसका यही होता कि उस बिरादरी के लोगों के यहाँ होने जा रहे आयोजन के लिए उसे जिंदा जला कर भूना जाता। वह पूरी प्रक्रिया तो जान ने का कभी दुस्साहस नहीं हो पाया किंतु उसके चारों पैर बाँध कर उसे अग्नि के हवाले किए जाते तक देखा। भीषण दृश्य होता था। हवा में दुर्गन्ध चीत्कारें। कई कई रात डर पीड़ा में कांपते गुजरते। बचपन बीता, घर छूटा और वह चीत्कार दृश्य भी।

गत दिनों एक ऐसे यथार्थ से आँखें फटी रह गईं कि वह बचपन का दृश्य उस दिन से बार बार डरपा रहा है, यादों में उमड़ा रहा है। आज के एक भीषण यथार्थ को प्रस्तुत करती कविता के लिए जब मैंने तत्सम्बन्धी वास्तविकताओं के चित्र देखे तो तब से हाथ- पैर बँधी एक स्त्री का चित्र ठीक उस सूअरी की याद दिलाता है, जिसे जिंदा आग में झोंक दिया जाता था और उसके तड़फड़ा कर आग से बाहर उलट/ झपट पड़ने की आशंका को दूर करने के लिए चारों और लोग उसे डंडे से ताने आग पर सेंकते रहते, धकेलते रहते। यदि किसी स्त्री को आज के युग में आप ऐसी अवस्था में देखें तो क्या हो मन की स्थिति ? ऐसी ही कष्ट में बेहाल स्त्रियों के चित्र देख मेरे रोंगटे खड़े हो गए, उनकी पीड़ा से त्रस्त हूँ .


चित्र के लिए तो वहीं जाना होगा ( वहाँ पहला चित्र ), किंतु इस पीड़ा को ऋषभदेव जी ने जो शब्द दिए हैं उन्हें मैं अपनी पसंद के रूप में आप को यहीं पढ़वा रही हूँ --





औरतें औरतें नहीं हैं !

-ऋषभ देव शर्मा




वे वीर हैं
मैं वसुंधरा.
उनके-मेरे बीच एक ही सम्बन्ध -
'वीर भोग्या वसुंधरा.'

वे सदा से मुझे जीतते आए हैं
भोगते आए हैं,
उनकी विजयलिप्सा अनादि है
अनंत है
विराट है.

जब वे मुझे नहीं जीत पाते
तो मेरी बेटियों पर निकालते हैं अपनी खीझ
दिखाते हैं अपनी वीरता.

युद्ध कहने को राजनीति है
पर सच में जघन्य अपराध !
अपराध - मेरी बेटियों के खिलाफ
औरतों के खिलाफ !

युद्धों में पहले भी औरतें चुराई जाती थीं
उनके वस्त्र उतारे जाते थे
बाल खींचे जाते थे
अंग काटे जाते थे
शील छीना जाता था ,
आज भी यही सब होता है.
पुरुष तब भी असभ्य था
आज भी असभ्य है,
तब भी राक्षस था
आज भी असुर है.

वह बदलता है हार को जीत में
औरतों पर अत्याचार करके.

सिपाही और फौजी
बन जाते हैं दुर्दांत दस्यु
और रौंद डालते हैं मेरी बेटियों की देह ,
निचोड़ लेते हैं प्राण देह से.

औरते या तो मर जाती हैं
[ लाखों मर रही हैं ]
या बन जाती हैं गूँगी गुलाम
..

वे विजय दर्प में ठहाके लगाते हैं !

वे रौंद रहे हैं रोज मेरी बेटियों को
मेरी आँखों के आगे.
पति की आँखों के आगे
पत्नी के गर्भ में घुसेड़ दी जाती हैं गर्म सलाखें.
माता-पिता की आँखों आगे
कुचल दिए जाते हैं अंकुर कन्याओं के.

एक एक औरत की जंघाओं पर से
फ्लैग मार्च करती गुज़रती है पूरी फौज,
माँ के विवर में ठूँस दिया जाता है बेटे का अंग !

औरतें औरतें हैं
न बेटियाँ हैं, न बहनें;
वे बस औरतें हैं
बेबस औरतें हैं.
दुश्मनों की औरतें !

फौजें जानती हैं
जनरल जानते हैं
सिपाही जानते हैं
औरतें औरतें नहीं होतीं
अस्मत होती हैं किसी जाति की.

औरतें हैं लज्जा
औरतें हैं शील
औरतें हैं अस्मिता
औरते हैं आज़ादी
औरतें गौरव हैं
औरतें स्वाभिमान.

औरतें औरतें नहीं
औरतें देश होती हैं.
औरत होती है जाति
औरत राष्ट्र होती है.

जानते हैं राजनीति के धुरंधर
जानते हैं रावण और दुर्योधन
जानते हैं शुम्भ और निशुम्भ
जानते हैं हिटलर और याहिया
कि औरतें औरतें नहीं हैं,
औरतें देश होती हैं.
औरत को रौंदो
तो देश रौंदा गया ,
औरत को भोगो
तो देश भोगा गया ,
औरत को नंगा किया
तो देश नंगा होगा,
औरत को काट डाला
तो देश कट गया.

जानते हैं वे
देश नहीं जीते जाते जीत कर भी,
जब तक स्वाभिमान बचा रहे!

इसीलिए
औरत के जननांग पर
फहरा दो विजय की पताका
देश हार जाएगा आप से आप!

इसी कूटनीति में
वीरगति पा रही हैं
मेरी लाखों लाख बेटियाँ
और आकाश में फहर रही हैं
कोटि कोटि विजय पताकाएँ!

इन पताकाओं की जड़ में
दफ़न हैं मासूम सिसकियाँ
बच्चियों की
उनकी माताओं की
उनकी दादियों-नानियों की.

उन सबको सजा मिली
औरत होने की
संस्कृति होने की
सभ्यता होने की.

औरतें औरतें नहीं हैं
औरतें हैं संस्कृति
औरतें हैं सभ्यता
औरतें मनुष्यता हैं
देवत्व की संभावनाएँ हैं औरतें!

औरत को जीतने का अर्थ है
संस्कृति को जीतना
सभ्यता को जीतना,
औरत को हराने का अर्थ है
मनुष्यता को हराना,
औरत को कुचलने का अर्थ है
कुचलना देवत्व की संभावनाओं को,

इसीलिए तो
उनके लिए
औरतें ज़मीनें हैं;
वे ज़मीन जीतने के लिए
औरतों को जीतते हैं!
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