Sunday, January 25, 2009
यूँ ही
अक्सर ही हुआ यूँ
की
अंतस में उमड़ी कई कवितायें ,
और न लिखी जाकर
अंतत आँखों से झर गई ।
अक्सर ही हुआ यूँ
की
कई कहानियाँ उँगलियों के पोरों तक आ गई ,
और न लिखी जाकर
अंतत रोटी के आटे में गूँथ गईं ।
अक्सर ही हुआ यूँ
कि
कोई प्यारा सा गीत
गूंजता रहा मन में ,
होठों के कोरों तक आया ,
और चीख चिल्लाहट में बदल गया ।
अक्सर ही हुआ यूँ
कि
आषाढ़ की पहली बारिश के दिन
दिल की मिटटी से उठी
प्यार की सोंधी गंध
और
चाय पकोडों के साथ
पेट में चली गई ।
अक्सर ही नही
बार बार होता रहा यूँ
मेरी अजन्मी कविताओं ,
अनकही कहानियो ,
अनगाये गीतों और
अनकिये प्यार के साथ ।
फ़िर भी पीछे नही हटी मैं
डटी रही
ज़िन्दगी की आँखों मैं ऑंखें डाले ।
और फ़िर
लिख ही डालीं
मन की कवितायें ,
कह ही डाली
सब कहानियाँ ,
गा ही लिए
कुछ गीत ,
कर ही लिया
थोड़ा सा प्यार ।
कर ही ली
एक बार ही सही
अपनी मनमानी .
Saturday, January 24, 2009
तुम्हारे अस्तित्व की जननी हूँ मै
दुर्गा भी मै
सीता भी मै
मंदोदरी भी मै
रुकमनी भी मै
मीरा भी मै
राधा भी मै
गंगा भी मै
सरस्वती भी मै
लक्ष्मी भी मै
माँ भी मै
पत्नी भी मै
बहिन भी मै
बेटी भी मै
घर मे भी मै
मंदिर मे भी मै
बाजार मे भी मै
"तीन तत्वों " मे भी मै
पुजती भी मै
बिकती भी मै
अब और क्या
परिचय दू
अपने अस्तित्व का
क्या करुगी तुम से
करके बराबरी मै
जब तुम्हारे
अस्तित्व की
जननी हूँ मै
तुम जब मेरे बराबर
हो जाना तब ही
मुझ तक आना
दुर्गा शक्ति का प्रतीक
सीता , मंदोदरी, रुकमनी भार्या का प्रतीक
मीरा , राधा प्रेम का प्रतीक
गंगा , पवित्रता का प्रतीक
सरस्वती , ज्ञान का प्रतीक
लक्ष्मी , धन का प्रतीक
बाजार , वासना का प्रतीक
तीन तत्व , अग्नि , धरती , वायु
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
Thursday, January 8, 2009
नववर्ष की शुभकामनाएँ
नए वर्ष की नई दिशा हो
नई कामना, नई आस हो
नई भावना, नई सोच हो
नई सुबह की नई प्यास हो
नई धूप हो, नई चाँदनी
नई सदी का नव विकास हो
नया प्रेम औ' नया राग हो
हर सुख अपने आसपास हो
नई रौशनी, नई डगर हो
नया खून औ' नई श्वास हो
नया रूप औ' नव जुनून हो
मन में बसती नव मिठास हो
नए सपन हों, नई शाम हो
रंग-बिरंगा कैनवास हो
नए फूल औ' नई उमंगें
अंतर्मन में नव सुवास हो !
डॉ. मीना अग्रवाल
Sunday, January 4, 2009
करुण पुकार
करुण पुकार
(माँ के नाम अजन्मी बिटिया की)
माँ,
मुझे एक बार तो जन्मने दो,
मैं खेलना चाहती हूँ
तुम्हारी गोद मैं,
लगना चाहती हूँ
तुम्हारे सीने से,
सुनना चाहती हूँ
मैं भी लोरी प्यार भरी,
मुझे एक बार जन्मने तो दो;
माँ,
क्या तुम नारी होकर भी
ऐसा कर सकती हो,
एक माँ होकर भी
अपनी कोख उजाड़ सकती हो?
क्या मैं तुम्हारी चाह नहीं?
क्या मैं तुम्हारा प्यार नहीं?
मैं भी जीना चाहती हूँ,
मुझे एक बार जन्मने तो दो;
माँ,
मैं तो बस तुम्हे ही जानती हूँ,
तुम्हारी धड़कन ही पहचानती हूँ,
मेरी हर हलचल का एहसास है तुम्हे,
मेरे आंसुओं को भी
तुम जरूर पहचानती होगी,
मेरे आंसुओं से
तुम्हारी भी आँखें भीगती होगी,
मेरे आंसुओं की पहचान
मेरे पिता को कराओ,
मैं उनका भी अंश हूँ
यह एहसास तो कराओ,
मैं बन के दिखाऊंगी
उन्हें उनका बेटा,
मुझे एक बार जन्मने तो दो;
माँ,
तुम खामोश क्यों हो?
तुम इतनी उदास क्यों हो?
क्या तुम नहीं रोक सकती हो
मेरा जाना ?
क्या तुम्हे भी प्रिय नहीं
मेरा आना?
तुम्हारी क्या मजबूरी है?
ऐसी कौन सी लाचारी है?
मजबूरी..??? लाचारी...???
मैं अभी यही नहीं जानती,
क्योंकि
मैं कभी जन्मी ही नहीं,
कभी माँ बनी ही नहीं,
माँ,
मैं मिटाउंगी तुम्हारी लाचारी,
दूर कर दूंगी मजबूरी,
बस,
मुझे एक बार जन्मने तो दो.
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
Friday, January 2, 2009
एक स्त्री के प्रति
हिमांशु पाण्डेय जी की ये कविता अतिथि कवि की पोस्ट के तहत पोस्ट की जा रही हैं । आप भी पढ़े और अपने कमेन्ट दे ।
स्वीकार कर लिया
काँटों के पथ को
पहचाना फ़िर भी
जकड़ लिया बहुरूपी झूठे सच को
कुछ बतलाओ, न रखो अधर में
हे स्नेह बिन्दु !
क्यों करते हो समझौता ?
जब पूछ रहा होता हूँ, कह देते हो
'जो हुआ सही ही हुआ' और
'जो बीत गयी सो बात गयी' ,
कहो यह मौन कहाँ से सीखा ?
जो समाज ने दिया
अंक में भर लेते हो
अपने सुख को, मधुर स्वप्न को
विस्मृत कर देते हो
यह महानता, त्याग तुम्हीं में पोषित
कह दो ना, ऐसा मंत्र कहाँ से पाया ?
मन के भीतर
सात रंग के सपने
फ़िर उजली चादर क्यों ओढी है तुमने
हे प्रेम-स्नेह-करुणा-से रंगों की धारित्री तुम
स्वयं, स्वयं से प्रीति न जाने
क्यों छोड़ी है तुमने ?
मैं अभिभूत खडा हूँ हाथ पसारे
कर दो ना कुछ विस्तृत
हृदय कपाट तुम्हारे
कि तेरे उर-गह्वर की मैं गहराई नापूँ
देखूं कितना ज्योतिर्पुंज
वहाँ निखरा-बिखरा है ।
Thursday, January 1, 2009
एक नया संकल्प!
नए वर्ष के
इस प्रथम दिवस को
अपना संकल्प-दिवस
बना लें।
एक मशाल जलाकर
क्रांति की
मिटा डालें इबारत
इस भ्रान्ति की
कि नारी सिर्फ
अबला और आश्रित है,
सिर्फ पुरूष के पीछे - पीछे
चल कर जीवित है.
नारी सृष्टि का प्रतीक है
सृजकों का स्वागत
विध्वंसकों के अस्तित्व पर
अब प्रहार पर प्रहार कर
उन दुर्योधनों और दुशासनों
के अस्तित्व को मिटाना है।
उन्हें जीने का हक़ नहीं ।
अपने हाथ से
मस्तक पर
तिलक लगाने से
कोई पूज्य नहीं होता,
अहम् ब्रह्मास्मि
कहने भर से
कोई सृष्टा नहीं होता।
अब ठानना है,
महिषासुरों के लिए
दुर्गा बन कर
उनके लिए काल बनना है,
जो ममतामयी,
त्याग्शील औ' समर्पिवा
स्वरूप से
अपनी मर्जी से
खिलवाड़ करे ,
उनके अधिकारों को
अपनी मर्जी से
दें या फिर हनन करें
ऐसे लोगों से
लड़ने का संकल्प
करें और करते रहें.
साल- दर -साल के संकल्प
कुछ तो हमने पाया है
एक नए संकल्प से
सोच पुरातन पंथों की
बदलने के लिए
नया बीड़ा तो अब उठाया है.
हम न भी रहे
यह मशाल जलती ही रहेगी,
हम न सही
हम जैसे ही
और जन्म लेंगे
जो इसको जलाए रखेगें
जब तक कि
इस जहाँ में
अपने अर्धार्गिनी स्वरूप
को सार्थक सिद्ध करने
में सफल नहीं होती है।
सर्वस्व वह नहीं
बनना चाहती है
फिर भी
उसके बिना भी सृष्टि
अधूरी है
इस बात को
और अपने अस्तित्व के
महत्व को
इबारत में लिखकर
पुरूष ही नहीं
संपूर्ण मानवजाति
के लिए
स्वीकार्य
बना कर
समानता के सूत्र को
सार्थक करेगी।