सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Monday, September 22, 2014

विचार

ना जाने क्यूँ
आजकल कुछ लिख नहीं पाती

विचार
दिमाग की दीवारो से टकरा कर
वापिस लौट आते है

आवाज़ें
वादियों की तरह
मन में गूंज के रह जाती है

ऐसा क्या परिवर्तन हुआ है
जो मेरे अंतर्मन को
अपनी भाषा बोलने नहीं दे रहा
हर रात अपने ही विचारो के साथ
मैं एक संघर्ष करती हुँ

उन्हें पन्ने पे उतारने का संगर्ष
उन्हें विचारो से व्यक्तित्व बनाने का संघर्ष
उन्हें मृत से जीवित बनाने का संघर्ष
उन्हें विचारो से शब्द बनाने का संघर्ष

पर सत्य ये भी है की
यदि पन्नो पे न छप सके फिर भी
ये विचार कमज़ोर नहीं होते
व्यक्ति मर जाता है
परन्तु उसके विचार जीवित रहते है
शब्दों को परिभाषित
होने के लिए विचारों की आवश्यक्ता है
विचारों को नहीं
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Thursday, July 10, 2014

ढोंगी

 

इस समाज के कुछ लोग 
मानते हैं उसे भगवान्
या फिर कोई अवतार 
और वह गढ़ता है कुछ कहानियाँ 
जिससे बना रहे यह भ्रम लोगों का 

नहीं जानते लोग इस समाज के 
कि जब वह बांच रहा होता है ज्ञान 
महिला उत्पीड़न के विरुद्ध किसी सभा में 
उसकी पत्नी कर रही होती है नाकामयाब कोशिश 
अपने बदन के खरोंचो को छुपाने की 
डाल रही होती है आँखों में गुलाब जल 
कि कम हो रोने के बाद आँखों का सूजन 
और वह बनी रहे सफल अभिनेत्री साल दर साल 


भले ही चिल्लाता हो वह अपने बच्चे की जिद पर
और नहीं संभाल पाता हो उसकी बचकानी आदतें 
या कर देता हो उसकी कुछ मांगे पूरी 
गैर जिम्मेदाराना तरीके से, छुड़ाने को पीछा 
पर कहाँ मानेंगे ये सब उस बस्ती के लोग 
जहाँ वह पिलाता है हर पोलियो रविवार को 
गरीब छोटे बच्चों को दो बूँद जिंदगी के 
धूप में रहकर खड़ा समाज सेवा के नाम


करती है अचरज उसके घर की कामवाली 
कि साहेब धमका आते हैं हर बार उसके पति को 
जब भी वह उठाता है हाथ उसपर 
और देती है दुआएं मालकिन को सुहागिन बने रहने की 
सहम जाते हैं पुलिसकर्मी भी देखकर 
उसके खादी के कुरते को 
और लगाते हैं जयकारा साहेब के इस महान कृत्य पर 


घर के सामने पार्क में खेलते सभी बच्चे हैं उसके दोस्त 
और गली के हर कुत्ते ने खाया है उसके हाथ से खाना 
मुहल्ले के सभी बुजुर्गों को झुक कर करता है प्रणाम 
मदद के लिए सबसे पहले लोग उसे करते हैं याद 


डाल आई है आज उसकी पत्नी 
तलाक की एक तरफा अर्जी अदालत में 
और सोच रही है कौन सी सूचना उसे मिलेगी पहले 
एक झूठे रिश्ते से उसके निजात पाने की 
या सार्वजनिक सेवा व सामुदायिक नेतृत्व का मैग्सेसे पुरस्कार 
उस ढोंगी के नाम होने की !!!


सुलोचना वर्मा
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विदाई

 
दिवाली के बाद 
जब आयी सहालग की बारी 
हो गई डोली विदा घर से 
और चले गए बाराती 

खड़ा रहा पिता 
दुआरे पर बहुत देर 
मन सा भारी कुछ लिए


देखती रही माँ एकटक 
गुलाबी कुलिया चुकिया 
जो भरा था अब भी 
खाली-खाली से घर में 


----सुलोचना वर्मा----

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Saturday, June 14, 2014

नारी!! तुम ही....

तुम अनन्या तुम लावण्या
तुम नारी सुलभ लज्जा से आभरणा
तुम सहधर्मिनी तुम अर्पिता
तुम पूर्ण नारीश्वर गर्विता




उत्तरदायित्वों की तुम निर्वाहिनी
तुम ही पुरुष की चिरसंगिनी
तुम सौन्दर्य बोध से परिपूर्णा
तुम से ही धरित्री आभरणा




तुम ही स्वप्न की कोमल कामिनी
तुमसे सजी है दिवा औ'यामिनी
शिशु हितार्थ पूर्ण जगत हो तुम
गृहस्थ की परिपूर्णता हो तुम




तुमसे ये धरा है चञ्चला
जननी रूप मे तुम निर्मला
कभी कठोर पाषाण हृदय से रंजित
कभी करूणामयी हृदय विगलित



कभी तुम अतसि-रूपसी सौन्दर्या
कभी हुंकारित रण-वीरांगना
हे नारी!! तुम ही सृष्टिकर्ता
तुमसे ही सम्भव पुरुष-प्रकृति वार्ता




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Tuesday, April 22, 2014

घर से भागी हुई लड़की

घर से भागी हुई लड़की
चल पड़ती है भीड़ में
लिए अंतस में कई प्रश्न 
डाल देती है संदेह की चादर
अपनापन जताते हर शख्स पर
पाना होता है उसे अजनबी शहर में
छोटा ही सही, अपना भी एक कोना
रह रहकर करना होता है व्यवस्थित
उसे अपना चिरमार्जित परिधान
मनचलों की लोलुप नज़रों से बचने के लिए
दबे पाँव उतरती है लॉज की सीढियां
कि तभी उसकी आँखें देखती है
असमंजस में पड़ा चैत्र का ललित आकाश
जो उसे याद दिलाता है उसके पिता की
करती है कल्पना उनकी पेशानी पर पड़े बल की
और रह रहकर डगमगाते मेघों के संयम  को
सौदामनी की तेज फटकार
उकेरती है उसकी माँ की तस्वीर
विह्वल हो उठता है उसका अंतःकरण
उसके मौन को निर्बाध बेधती है प्रेयस की पदचाप
और फिर कई स्वप्न लेने लगते हैं आकार
पलकों पर तैरते ख्वाब के कैनवास पर
जिसमें वह रंग भरती है अपनी पसंद के
यादें, अनुभव, उमंग  और आशायें
प्रत्याशा की धवल किरण
और एक अत्यंत सुन्दर जीवन
जिसमें वह पहनेगी मेखला
और हाथ भर लाल लहठी
जहाँ आलता में रंगे पाँव
आ रहे हों नज़र
कैसे तौले वह खुद को वहाँ
सामाजिक मापदंडों पर  .......

(c)सुलोचना वर्मा


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Saturday, February 1, 2014

फ़र्ज़ का अधिकार

इस पुरुष प्रधान समाज में
सदा सर्वोपरि रही
बेटों की चाह
उपेक्षा, ज़िल्लत, अपमान से
भरी रही
बेटियों की राह
सदियों से संघर्षरत रहीं
हम बेटियाँ
कई अधिकार सहर्ष तुम दे गए
कई कानून ने दिलवाए
बहुत हद तक मिल गया हमें
हमारी बराबरी का अधिकार
जन्म लेने का अधिकार
पढने का,
आगे बढ़ने का अधिकार
जीवन साथी चुनने का अधिकार
यहाँ तक कि
कानून ने दे दिया हमें
तुम्हारी संपत्ति में अधिकार
लेकिन .....
हमारे फर्जों का क्या?
आज भी बेटियाँ बस एक दायित्व हैं
आज भी हैं केवल पराया धन
हर फ़र्ज़ केवल ससुराल की खातिर
माँ-बाप के प्रति कुछ नहीं?
बुढ़ापे का सहारा केवल बेटे,
बेटियाँ क्यूँ नहीं?
क्यूँ बेटी के घर का
पानी भी स्वीकार नहीं?
क्यों बुढ़ापे का सहारा बनने का
बेटियों को अधिकार नहीं?
सामाजिक अधिकार मिल गए बहुत
आज अपनेपन का आशीर्वाद दो
कहती है जो बेटियों को परायी
उस परंपरा को बिसार दो
हो सके तो मुझको, मेरे
फ़र्ज़ का अधिकार दो
मुझको मेरे फ़र्ज़ का अधिकार दो
........................................आलोकिता

Thursday, January 9, 2014

बेगैरत सा यह समाज . . . . .

हर रोज यहाँ संस्कारों को ताक पर रख कर,
बलात् हीं इंसानियत की हदों को तोड़ा जाता है|

नारी-शरीर को बनाकर कामुकता का खिलौना,
स्त्री-अस्मिता को यहाँ हर रोज़ हीं रौंदा जाता है|

कर अनदेखा विकृत-पुरुष-मानसिकता को यह समाज,
लड़कियों के तंग लिबास में कारण ढूंढता नज़र आता है|

मानवाधिकार के तहत नाबालिग बलात्कारी को मासूम बता,
हर इलज़ाम सीने की उभार और छोटी स्कर्ट पर लगाया जाता है|

दादा के हाथों जहाँ रौंदी जाती है छः मास की कोमल पोती,
तीन वर्ष की नादान बेटी को बाप वासना का शिकार बनाता है|

सामूहिक बलात्कार से जहाँ पाँच साल की बच्ची है गुजरती,
अविकसित से उसके यौनांगों को बेदर्दी से चीर दिया जाता है|

शर्म-लिहाज और परदे की नसीहत मिलती है बहन-बेटियों को,
और माँ-बहन-बेटी की योनियों को गाली का लक्ष्य बनाया जाता है|

स्वयं मर्यादा की लकीरों से अनजान, लक्ष्मण रेखा खींचता जाता है|
बेगैरत सा यह समाज हम लड़कियों को हीं हमारी हदें बताता है|



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