सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, April 19, 2011

हे पुरुष !


पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे चौड़े कंधो में नही
तुम्हारी बांहों के मज़बूत घेरे में है
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारी गंभीर ऊँची आवाज़ में नही
तुम्हारे मीठे स्वर में है
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे बाहरी कर्म क्षेत्र के सम्मान में नही
घर में सम्मानित होने में भी है
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे अनगिनत दोस्तों में नही
अपने बच्चों के दोस्त होने में भी है ...
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे क्रूर होने में नही
तुम्हारे दया से भरपूर स्पर्श में है
पौरूष तुम्हारा
नारी को नर से नीचा दिखाने में नही
उसे मानव सा मान समान समझने में है...
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारे अहम् दिखाने में नही
सागर से विशाल हृदय को दिखाने में है....


© 2008-13 सर्वाधिकार सुरक्षित!

6 comments:

वर्षा said...

बेहतरीन कथ्य के साथ सुंदर कविता

Sadhana Vaid said...

बहुत सशक्त रचना ! बधाई स्वीकार करें !

vandana gupta said...

आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (21-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

http://charchamanch.blogspot.com/

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सटीक बातें ..लेकिन यह सब होता नहीं ...सुन्दर अभिव्यक्ति

अनामिका की सदायें ...... said...

kash har purush is paurush ko samajh paye.

bahut sateek abhivyakti.

aabhar.

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

मिनाक्षी जी बहुत सुन्दर गंभीर रचनाये आप की सुन्दर आह्वान से भरी -निम्न बहुत सुन्दर कहा आप ने
पौरूष तुम्हारा
तुम्हारी गंभीर ऊँची आवाज़ में नही
तुम्हारे मीठे स्वर में है
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५