स्त्रियां
बांटती हैं दर्द
एक दूसरे का
बतियाती हैं अपने दुख
दबी-दबी आवाज़ में
अगल-बगल रखी कुर्सियां भी न सुन लें
फुसफुसाती हैं
आंखों से बरसते बादल को
बार-बार पोंछती हैं
मन ही मन फुंफकारती भी हैं
और फिर जुट जाती हैं
रोज़ के अपने काम में
© 2008-13 सर्वाधिकार सुरक्षित!
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
Sunday, April 17, 2011
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3 comments:
बेहद खूबसूरत अन्दाज़ में स्त्री के स्वभाव का कटु सत्य उजागर कर दिया...
good poem
bilkul sahi kaha...
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