सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Sunday, September 19, 2010

कितनी मौत?

वे उसकी मौत पर
 मातम मना रहे थे,
चिल्ला-चिल्ला कर 
सब रो रहे थे.
उनमें वे लोग भी थे
जो जीते जी उसका
जीवन नरक बनाये रहे
औ' देते रहे रोज नई मौत.
आज उसके मुर्दे को
सजा रहे हैं,
साथ ही आंसुओं से 
नहला रहे हैं.
दूर उसकी आत्मा खड़ी
अट्टहास कर रही है -
वाह रे दुनिया वालो,
जिन्दा रहते जब 
हजार मौत मरती रही 
तब कहाँ थे?
पहली बार मैं तब मरी 
जब दहेज़ के लिए
मेरे पिता को कोसा था तुमने
गालियों से  नवाजा था मेरी माँ को,
दूसरी बार उस वक्त मरी
जब बेटी को जन्म था मैंने,
और फिर
बेटी के होने के ताने ने
बार बार मारा मुझे.
तुम्हारी बेटे की चाह ने
कई बार मारा मुझे,
आखिर मेरी बेटियों के साथ 
घर से निकला तुमने.
मेरा सब्र टूट चुका था,
बेटियों को सुलाकर मंदिर में
जल समाधि ले ली मैंने
फिर भी नहीं छोड़ा ,
मेरी लाश भी ले आये.
अब दुनियाँ की नज़रों में
महान बन रहे हो,
फूलों की माला
सजीली साड़ी से मुँह ढक कर
चेहरा छुपा रहे हो.
मेरी इस पूरी मौत पर 
दुनियाँ को तमाशा दिखा रहे हो.

6 comments:

वीना श्रीवास्तव said...

बहुत ही उम्दा रचना, एक नारी की मां,पत्नी,बेटी व बहू के रूप में भोगी गई वेदना का चित्रण...बहुत अच्छी

http://veenakesur.blogspot.com/

निर्मला कपिला said...

दूर उसकी आत्मा खड़ी
अट्टहास कर रही है -
वाह रे दुनिया वालो,
जिन्दा रहते जब
हजार मौत मरती रही
तब कहाँ थे?
रेखा जी बहुत अच्छी लगी कविता। दुनिया को उसका चेहरा दिखा दिया। लाजवाब। बधाई।

vandana gupta said...

बस यही तो दुनिया है जो जीते जी किसी की नही होती और मरने के बाद भी अपने ही फ़ायदे के लिये दो आँसू बहाती है वरना
कौन किसके लिये रोता है
सब नज़रों का धोखा है

शरद कोकास said...

अच्छी कविता है ।

Asha Joglekar said...

बहुत बढिया रचना । नारी के आक्रोश को शब्दों में बखूबी ढाला है आपने .

vijai Rajbali Mathur said...

meri shrimatiji ka kahna hai ki yah samvedanshil aur marmik kavita bahut acchche dhang se prastut ki gai hai.