सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Friday, July 30, 2010

"मैं क्या चाहती हूं ?" शुक्रिया आशा जी इस कविता के लिये । आप प्रेरणा हैं हमारी पीढ़ी की .

लोग कहते हैं नयी लडकियां आजादी कि बात करती हैं और पता नहीं किस से आज़ादी चाहती हैं । कौन हैं नयी लड़कियों कि प्रेरणा । वो माँ जो आज उम्र के उस पढाव पर खड़ी हैं जहाँ उसको नानी / दादी कहते हैं । आशा मेम मे मैने वो प्रेरणा देखी हैं वो आग देखी हैं जो नयी लड़कियों मे आजाये तो समाज मे बदलाव आते देर नहीं लगेगी ।
आशा जी कि कविताओं मे मुझे वो सब दिखता हैं जो समाज को बदलने का आवाहन । शुक्रिया आशा जी इस कविता के लिये । आप प्रेरणा हैं हमारी पीढ़ी की . आशा जी के ब्लॉग का लिंक हैं

मैं क्या चाहती हूं ?


मुझे अपना ब्याह रचाना है ,
यह भली भांति जानती हूं ,
पर मैं कोई गाय नहीं कि ,
किसी भी खूंटे से बांधी जाऊं
ना ही कोई पक्षी हूं ,
जिसे पिंजरे में रखा जाए ,
मैं गूंगी गुड़िया भी नहीं ,
कि चाहे जिसे दे दिया जाए ,
मैं ऐसा सामान नहीं ,
कि बार बार प्रदर्शन हो ,
जिसे घरवालों ने देखा ,
वह मुझे पसंद नहीं आया ,
मैं क्या हूं क्या चाहती हूं ,
यह भी न कोई सोच पाया ,
ना ही कोई ब्यक्तित्व है ,
और ना ही बौद्धिकस्तर ,
ना ही भविष्य सुरक्षित उसका
फिर भी घमंड पुरुष होने का ,
अपना वर्चस्व चाहता है ,
जो उसके कहने में चले,
ऐसी पत्नी चाहता है ,
पर मैं यह सब नहीं चाहती ,
स्वायत्वता है अधिकार मेरा ,
जिसे खोना नहीं चाहती ,
जागृत होते हुए समाज में ,
कुछ योगदान करना चाहती हूं ,
उसमे परिवर्तन लाना चाहती हूं ,
वरमाला मैं तभी डालूंगी ,
यदि किसी को अपने योग्य पाऊँगी |


आशा



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Thursday, July 22, 2010

अब तो जागो

© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!
कब तक तुम
अपने अस्तित्व को
पिता या भाई
पति या पुत्र
के साँचे में ढालने के लिये
काटती छाँटती
और तराशती रहोगी ?
तुम मोम की गुड़िया तो नहीं !

कब तक तुम
तुम्हारे अपने लिये
औरों के द्वारा लिये गए
फैसलों में
अपने मन की अनुगूँज को
सुनने की नाकाम कोशिश
करती रहोगी ?
तुम गूंगी तो नहीं !

कब तक तुम
औरों की आँखों में
अपने अधूरे सपनों की
परछाइयों को
साकार होता देखने की
असफल और व्यर्थ सी
कोशिश करती रहोगी ?
नींदों पर तुम्हारा भी हक है !

कब तक तुम
औरों के जीवन की
कड़वाहट को कम
करने के लिये
स्वयम् को पानी में घोल
शरबत की तरह
प्रस्तुत करती रहोगी ?
क्या तुम्हारे मन की
सारी कड़वाहट धुल चुकी है ?
तुम कोई शिव तो नहीं !

कब तक तुम
औरों के लिये
अपना खुद का वजूद मिटा
स्वयं को उत्सर्जित करती रहोगी ?

क्यों ऐसा है कि
तुम्हारी कोई आवाज़ नहीं?
तुम्हारी कोई राय नहीं ?
तुम्हारा कोई निर्णय नहीं ?
तुम्हारा कोई सम्मान नहीं ?
तुम्हारा कोई अधिकार नहीं ?
तुम्हारा कोई हमदर्द नहीं ?
तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं ?

अब तो जागो
तुम कोई बेजान गुडिया नहीं
जीती जागती हाड़ माँस की
ईश्वर की बनायी हुई
तुम भी एक रचना हो
इस जीवन को जीने का
तुम्हें भी पूरा हक है !
उसे ढोने की जगह
सच्चे अर्थों में जियो !
अब तो जागो
नयी सुबह तुम्हें अपने
आगोश में समेटने के लिये
बाँहे फैलाए खड़ी है !
दैहिक आँखों के साथ-साथ
अपने मन की आँखें भी खोलो !
तुम्हें दिखाई देगा कि
जीवन कितना सुन्दर है !


साधना वैद

Wednesday, July 21, 2010

नन्ही परी

नन्ही परी
देख तेरे आंगन आई नन्ही परी
हर तरफ से देखो
वह प्रेम से भरी,
सुनकर उसकी कोयल सी आवाज
चला आये तू उस आगाज़
जहां वह खेल रही
देख तेरे अँागन आई नन्ही परी,
वह ले जाती तुझे   
 किसी और लोक में
जब होती वह
तेरी कोख में
तेज आवाज सुन
वह दुनिया से डरी
देख तेरे आँगन
आई नन्ही परी,
रौनक वह आँचल
में लेकर आई,
पास है उसके
चंचलता की झांई
जिसके छूकर
तू हो गई हरी
देख तेरे आँगन
आई नन्ही परी ..... रुचि राजपुरोहित 'तितली'

Friday, July 2, 2010

शुभकामना

© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!


मैंने तुम्हारे लिए
एक खिड़की खोल दी है
ताकि तुम
स्वच्छंद हवा में,
अनंत आकाश में,
अपने नयनों में भरपूर उजाला भर कर ,
अपने पंखों को नयी ऊर्जा से सक्षम बना कर
क्षितिज के उस पार
इतनी ऊँची उड़ान भर सको
कि सारा विश्व तुम्हें देखता ही रह जाए !

मैंने तुम्हारे लिए
बर्फ की एक नन्हीं सी शिला पिघला दी है
ताकि तुम पहाड़ी ढलानों पर
अपना मार्ग स्वयम् बनाती हुई
पहले दरिया तक पहुँच जाओ
तदुपरांत उसके अनंत प्रवाह में मिल
सागर की अथाह गहराइयों में
अपने स्वत्व को समाहित कर
उससे एकाकार हो जाओ
और उसके उस अबूझे रहस्य का हिस्सा बन जाओ
जिसे सुलझाने में
सारा संसार सदियों से लगा हुआ है !

मैंने तुम्हारे लिए
तुम्हारे घर आँगन की क्यारी में
सौरभयुक्त सुमनों के कुछ बीज बो दिये हैं
ताकि तुम उनमें नियम से खाद पानी डाल
उन्हें सींचती रहो
और समय पाकर तुम्हारे उपवन में उगे
सुन्दर, सुकुमार, सुगन्धित सुमनों के सौरभ से
सारा वातावरण गमक उठे
और उस दिव्य सौरभ की सुगंध से
तुम अपने काव्य को भी महका सको
जिसे पढ़ कर सदियों तक लोग
मंत्रमुग्ध एवं मोहाविष्ट हो बैठे रह जाएँ !

मैंने तुम्हारे लिए
मन की वीणा के तारों को
एक बार फिर झंकृत कर दिया है
ताकि तुम उस वीणा के उर में बसे
अमर संगीत को
अपनी सुर साधना से जागृत कर सको
और दिग्दिगंत में ऐसी मधुर स्वर लहरी को
विस्तीर्ण कर सको
कि सारी सृष्टि उसके सम्मोहन में डूब जाए
और तुम उस दिव्य संगीत के सहारे
सातों सागर और सातों आसमानों को पार कर
सम्पूर्ण बृह्मांड पर अपने हस्ताक्षर चस्पाँ कर सको !
तथास्तु !


साधना वैद