अपना घर होगा,
अपनी इच्छा ,अपने ख्यालों से
उसे एक अनोखा रंग दूंगी........
ख्वाहिशों की टोकरी में
यह भी एक ख्वाहिश रही नारी की,
पर घर?
वह अपना होता कहाँ है !
पनाह मिलती है,
खाने को दो रोटी
और एक नाम.........
बहुत कम लोगों की पोटली के ख्वाहिश
सच होते हैं
वरना जिधर देखो
ख्वाहिशों के आंसू बहते हैं
जिनको पोछ्नेवाले भी बिरले होते हैं..........
बेटी होने का भय
यूँ ही नहीं प्रबल होता है !
सात फेरों का परिणाम अनिश्चित........
उससे पार पाने के लिए,
अपने पैरों पर खड़ा होना,
भीड़ में गुम हो जाना है,
घर की दीवारों से वह गंध नहीं आती,
जो खनकती चूड़ियों से होती है,
छनकते पायल से होती है
माँ-माँ की गूँज से होती है,
पर...............
रोटी की बराबरी ने
सबकुछ विछिन्न कर दिया !
सहमे,दबे रूप से अलग
जो काया निकली
वह या तो ज्वाला है
या किसी कोने में हतप्रभ आकृति........
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
Wednesday, July 29, 2009
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18 comments:
रोटी की बराबरी ने
सबकुछ विछिन्न कर दिया !
सहमे,दबे रूप से अलग
जो काया निकली
वह या तो ज्वाला है
या किसी कोने में हतप्रभ आकृति.......
kitna shai kaha hai...sab kuch to badal gya roi ki khatir hi shayad..har rista kahi na kahin badla is roti ne...
सच में लड़की होने का भय .और साथ फेरो कि अनिश्चिता.........नारी को कभी भी एक घर नहीं मिलता....और वो कभी माँ कभी बहिन और कभी पत्नी बन कर अपने सपनो को केवल देखती है....उसे कभी भी जीती नहीं है...
कभी कभी शब्द नही मिलते आप के शब्दों की प्रशंसा के लिए बस सर झुका देने का मान होता है
बहुत कम लोगों की पोटली के ख्वाहिश
सच होते हैं
वरना जिधर देखो
ख्वाहिशों के आंसू बहते हैं
जिनको पोछ्नेवाले भी बिरले होते हैं..........
bahut sahi par vyathit karti baat ..........
pranaam ke sath shubhkamnayen
@@गर्भपात @@
आज मेने मार दिया
किसी की माँ ,किसी की बहन को
किसी की सास ,किसी की नन्द को
केसे हो सकता हु में, इतना पाषाण
केसे बन सकता हु में ,इतना निष्ठुर
केसे देख सकती हे ,इतनी निर्ममता
मेरी आँखे .............!
केसे लगा सकता हु में अंकुश
अपने ही अंश पर
उसके आने से पहले ही मेने
उसकी सांसे रोक दी
आज मेने हेवानियत की
सारी हदे तोड़ दी
केसे भूल सकता हु में
जिसने मुझे जन्म दिया
वो भी, एक औरत ही थी
मेने लज्जीत किया हे
एक माँ की कोख को ,
काश में मार जाता पैदा होते ही ,
ताकि भुझ न पाता ,कोई "चिराग "
सिर्फ इसलिए ,के वो लड़की थी ..................!
महेश नागर "चिराग"
Mob.92001-14377
सशक्त अभिव्यक्ति । कविता ने प्रभावित किया । दूसरी पंक्ति में इक्षा की जगह इच्छा कर देतीं तो अच्छा रहता । थोड़ा खटक रहा है ।
धन्यवाद ।
रोटी की बराबरी ने
सबकुछ विछिन्न कर दिया !
सहमे,दबे रूप से अलग
जो काया निकली
वह या तो ज्वाला है
या किसी कोने में हतप्रभ आकृति........
मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति बहुत सही कहा है शुभकामनायें
your poem has the gist of what people doing today and which way our generation is going, and the need to bring them back to senses.Make them feel that the way they are ignoring girls today , they will be ignored to morrow of aii that makes them. They will also become one day simply a thing hanging on the wall..
RAJIV
SAHI KAHA HAI AAPANE AAJ GHAR KHAWAHAISHO KI GHAR NAHI HAI MAATRA EK AURAT KELIYE DO ROTIYO KA GHAR BAN KAR RAH GAI HAI JISAME AURAT BAS JI RAHI HAI JAHA KOEE AAPANA NAHI HAI TO BAS KAM OUR AAAPKE DARD JISAKO MAHSUSANE WALE NAHI HOTE SIRF DARD DENE WALE HOTE HAI .....BAHUT HI ACHCHHI RACHANA AISI AURATO KO MAI JANTA HU JO ISI TARAH KI BAT KARATI HAI .....SUNDAR RACHCNA...MAN KO CHHOO GAYI
कविता बहुत प्रभावित करती है ...सच बात हमेशा दिल को गहरे तक छु जाती है
bahut hi hridaysparshi rachna hai........ek hakeekat.
निःसंकोच एक अत्यंत प्रभावशाली कविता, बाबजूद इसके की कविता के प्रथम भाग से मैं आंशिक रूप से ही सहमत हू |
रूह को पोर पोर भिगोती रचना ..!!
sacchayi se agar ek baat kahe to aapki kabita se man ek baat kehne ko mazboor kar deta hai ki tamaam risto ko na chahte huye bhi majhboori me dhote insano ki sabse badi mazboori shyad roti,pet ki bhook, ki hi bajhah se nirmit jaddojahat me fasi duniya muh moodti nazar aati hai............
kamal ki kavita hai, aapne khoobsurti se shabdo ko piro kar sajib chitran kiya hai........wakayi..bhaut badiya hai.......
बेटी तो वैसे भी जिन्दगी भर सिर्फ मोहताज ही होती है..माता पिता शादी होती है तब तक सोचते है की बेटी पराई है..
बेटी की शादी होती है तो माँता पिता कहेते है अब ये घर तुम्हारा नहीं..
फिर ससुराल में जाती है तो जिन्दगी भर सुनना पड़ता है बहोत लोगो को, की ये घर तुम दहेज़ में नहीं लाइ हों .
और खाना पीना तो जो काम करता है उसे मिल ही जाता है ना...नारी का जो दर्द है वो कोई नहीं समज सकता..
nihsandeh ek shashakt kavita hai....par kavtia ke bhaw se asahmat hoon......beshak bahut kam logo ki khwaishen puri nahi hoti, par puri hoti to hai...........
बेटी होने की व्यथा , रिश्तो की अनिश्चितता ... इच्छा होते हुए भी अपने ब्रश से खयालो को रंग नहीं दे पाना और परिणाम सामने - ख्वाहिश की टोकरी से ख्वाबो का बिखर जाना ...!
गहरी बात सोचने पर मजबूर करती रचना ... ILu ...!
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