न जाने क्यों
बगावत कर
तन कर खड़ी हो गई
वर्जनाओं और प्रतिबंधों की
जंजीरों को तोड़कर
नए स्वरूप में
जंग का ऐलान कर.
माँ लगी समझाने
वे बड़े हैं,
पिता हैं,
भाई हैं ,
उन्हें हक है
कि तुझे अपने अनुसार
जीवन जीने देने का।
नहीं, नहीं, नहीं..........
बचपन से प्रतिबंधों की
जंजीरों में जकड़ी
औ' अपनी बेबसी पर
रोते हुए देखा है तुम्हें
घुट-घुटकर जहर
पीते हुए देखा है तुम्हें
तुम्हारी छाया में
पिसती मैं भी रही
लाल-लाल आँखों का डर
हर पल सहमाये रहा
पर अब क्यों?
नहीं उनका रिश्ता
मैं नहीं ओढ़ सकती
जीवन भर के लिए
अपने को
दूसरों की मर्जी पर
नहीं छोड़ सकती।
जिन्दगी मेरी है,
उसे जीने का हक है मुझे
चाहे झूठी मान्यताओं
औ' प्रथाओं से लडूं
जीवन अपने लिए
जीना है तो क्यों न जिऊँ
पिता के साए से डरकर
तेरी गोद में
छुपी रही
अब नए जीवन में
उनका साया नहीं,
उन जैसे किसी भी पुरूष की
छाया भी नहीं
मैं पति से डरकर
जीना नहीं चाहती
अब परमेश्वर की मिथ्या
परिकल्पना को
तोड़कर
एक अच्छे साथी
तलाश ख़ुद ही करूंगी
चाहे जब भी मिले
मंजिल
उसके मिलने तक
अपनी लडाई
ख़ुद ही लडूंगी
मुझे जीने का हक है
मुझे जीने का हक है
और मैं उसको
अपने लिए ही जिऊंगी.
7 comments:
yatharth haen yae kavita rekha tumhari
bahut badhiya likha hai rekha ji............itni himmat to karni hi hogi har nari ko agar bandishon ko todna hai to.
मुक्त छन्द की कविता बहुत प्रभावशाली है लेकिन अंतिम पंक्ति का अर्थ समझने में असमर्थ हूँ....
" अपने लिए ही जिऊँगी, पता नहीं क्यों"
बहुत ही बढ़िया रचना . आभार
बहुत सुंदर लिखा आपने ... बधाई।
मीनाक्षीजी,
ये पंक्ति सिर्फ एडिट कि गलती से ऊपर से नीचे आ गयी है और जो publish होने के बाद में नजर आने लगी. फिर उसको दुबारा देख भी नहीं सकी थी. इस के लिए क्षमा चाहती हूँ.
बिल्कुल सही कहा |पहले लड़की पिता के ख़ौफ़ मे जीती है फिर भाई के ख़ौफ़ मे शादी के बाद पति के ख़ौफ़ मे
और जब पति के ख़ौफ़ से जीतने लगती है तो बेटोका ख़ौफ़ शुरू हो जाता है .
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