क्यूँ सखी
इतना अन्तर
तुझ में और मुझ में
मैं देख सकती हूँ
तारों के पार का जहाँ
बोल सकती हूँ
अपने आज़ादी के शब्द
सुन सकती हूँ
अपना मनचाहा स्वर
शायद मेरे इन्द्रिय
जाग उठे है समय के साथ
तू क्यूँ ग़लत परम्पराओं का
लंबा सा पल्लो
ओढ़ के बैठी है अब तक
जहाँ से तुझे सिर्फ़
अपने पैरों के नाखून ही नज़र आते है
एक कदम भी नही चल सकती तू
दूसरो के सहारे बिन
तेरी मुस्कान सिल जाती है जिस में
खोल दे वो घूँघट का पट सखी
मेरे संग तुझे बहुत दूर चलना है
नज़रों से पलकों का परदा हटा
तुझे नीला आसमान देखना है
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
Friday, April 24, 2009
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11 comments:
bahut hi khoobsoorti se likhi gayi rachna..........sach nari ko jagrit aise hi karna hoga.
badhayi ki patr hain.
bahut shabdon ka chayan kiya hai...
rachcna achci lagi
bhavnaon main dale shabdon ka khoobsoorat sanyojan. bahut hi badiay. badhai.
नज़रों से पलकों का परदा हटा
तुझे नीला आसमान देखना है
ek bahut sadhii huii jaratii laane ki koshish
bravo for the poem and keep it up
भाव हृदय उत्तम रहे क्या घूँघट का काम।
कर्मशील बन के करे नारी अपना नाम।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
'मेरे संग तुझे बहुत दूर चलना है
नज़रों से पलकों का परदा हटा
तुझे नीला आसमान देखना है'
-सुन्दर.
Bahut khoob. Acchhe shabd. Acchii abhivyakti.
aap sabhi ka tahe dil se shukran
bahut achchha aur bahut sahi likha hai aapne
बहुत ही प्रेरणादायी पंक्तियां। साहस से ही शक्ति का संचार होता है।
अच्छा लिखा।
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