सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, April 22, 2014

घर से भागी हुई लड़की

घर से भागी हुई लड़की
चल पड़ती है भीड़ में
लिए अंतस में कई प्रश्न 
डाल देती है संदेह की चादर
अपनापन जताते हर शख्स पर
पाना होता है उसे अजनबी शहर में
छोटा ही सही, अपना भी एक कोना
रह रहकर करना होता है व्यवस्थित
उसे अपना चिरमार्जित परिधान
मनचलों की लोलुप नज़रों से बचने के लिए
दबे पाँव उतरती है लॉज की सीढियां
कि तभी उसकी आँखें देखती है
असमंजस में पड़ा चैत्र का ललित आकाश
जो उसे याद दिलाता है उसके पिता की
करती है कल्पना उनकी पेशानी पर पड़े बल की
और रह रहकर डगमगाते मेघों के संयम  को
सौदामनी की तेज फटकार
उकेरती है उसकी माँ की तस्वीर
विह्वल हो उठता है उसका अंतःकरण
उसके मौन को निर्बाध बेधती है प्रेयस की पदचाप
और फिर कई स्वप्न लेने लगते हैं आकार
पलकों पर तैरते ख्वाब के कैनवास पर
जिसमें वह रंग भरती है अपनी पसंद के
यादें, अनुभव, उमंग  और आशायें
प्रत्याशा की धवल किरण
और एक अत्यंत सुन्दर जीवन
जिसमें वह पहनेगी मेखला
और हाथ भर लाल लहठी
जहाँ आलता में रंगे पाँव
आ रहे हों नज़र
कैसे तौले वह खुद को वहाँ
सामाजिक मापदंडों पर  .......

(c)सुलोचना वर्मा


© 2008-13 सर्वाधिकार सुरक्षित!

5 comments:

मीनाक्षी said...

कविता में प्रकृति का छायावाद हमेशा मन मोह लेता है...मेघ और दामिनी में मानवीकरण बेहद खूबसूरत लगा...

Shoma Abhyankar said...

beautiful picture painted with words. I too write poems please visit www.shomabhagwat.wordpress.com

Rashmi Swaroop said...

बहुत सुन्दर चित्रण… और दिल छूने वाली भावनांए…

dr.sunil k. "Zafar " said...

bahut sunder....
el ladki ke dil baat ache dang se explain kiya hai...danyawaad

Anamikaghatak said...

ati sundar....wah