अब भी कोहनिया जलती हैं
अब भी नमक कम ज्यादा होता हैं
पर
अब बच्चो का थाली फेकना
और
जहां एक माँ और पत्नी नहीं
एक औरत खाना बनाती हैं
हमारे घर में ऐसी क़ोई
औरत खाना नहीं बनाती
माँ , बेटी , पत्नी और बहू बनाती हैं
जो औरत नहीं हैं
उनको औरत ना कहे
और कहीं औरत देखे
तो घंटी बजा दे ताकि
औरत को इन्सान
वो परिवार समझने लगे
अब भी नमक कम ज्यादा होता हैं
पर
अब बच्चो का थाली फेकना
और
पति का चिल्लाना
बस वहीँ होता हैं जहां एक माँ और पत्नी नहीं
एक औरत खाना बनाती हैं
हमारे घर में ऐसी क़ोई
औरत खाना नहीं बनाती
माँ , बेटी , पत्नी और बहू बनाती हैं
जो औरत नहीं हैं
उनको औरत ना कहे
और कहीं औरत देखे
तो घंटी बजा दे ताकि
औरत को इन्सान
वो परिवार समझने लगे
अपमान आप रिश्तो का करते हैं
जब माँ , बहन , बेटी , पत्नी , बहु को
महज औरत कह देते हैं
© 2008-13 सर्वाधिकार सुरक्षित!
26 comments:
कविता से उपजी कविता... अधिक प्रभावशाली...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपका श्रम सराहनीय है!
सुन्दर.
मेरे ख्याल से बच्चे वही करते हैं जैसा घर में होते देखते हैं..अगर घर में पत्नी का आदर नहीं होगा तो बच्चे भी पहले अपनी माँ का ही आदर नहीं करेंगे और बड़े होने पर अपनी अपनी पत्नियों के साथ वही सलूक करेंगे जैसा बचपन से अपने घर में होते देखते आए हैं.. और घर की बेटियां भी अपनी माँ की दशा को देखते हुए इस बात को सहज भाव से अपनी सहमति दे देती हैं कि पराए घर जा कर उन्हें भी यही सब सहना है
इस सब को रोकने की शुरुआत खुद हमें ही करनी होगी अपनी माँ बेटी बहू के प्रति अपने रवैये को बदल कर... सार्थक कविता...
माँ,बहन,बेटी,पत्नी या कि बहू मातृ-शक्ति के रूप है जिसकी उपस्थिति को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है-बात चाहे खाना बनाने की ही क्यों न हो। वे हैं,तो संजीदगी है,सभ्यता है,सौम्यता है,समरसता है। जब-जब हमने उन्हें मामूली समर्थन या प्रोत्साहन भी दिया है-वे हमारी उम्मीदों से कहीं आगे गई हैं। उनसे ही हमारा जीवन है और यह दुनिया भी जीने लायक़। बदले में जो दिया हमने,सोच कर भी शर्मिंदगी होती है।
मैं राजिव जी के कमेन्ट से १००% सहमत हूँ जी
एक बेहद सशक्त व सार्थक कविता स्त्री की दशा को दर्शाती हुई।
मैंने जिस औरत को देखा है
किचन में बनाती हुई सब्जी
दिन भर के अवसाद
मसालों की तरह
कढाई में भून देती है वो
अपने पति के आगमन
और बच्चों की किलकारियों के लिए.
सारी परेशानियों को
उड़ा देती है भाप की तरह
सीटी बजाते हुए कुकर सी.
गाज़र सी लाल, पालक सी हरी
मटर की तरह दांतों को दिखाती मुस्काती,
परोसती है जब
खाने की मेज़ पर
स्वाद और सेहत से भरी सब्जी नहीं
सब्ज़ परिवार के बागबान की तरह!!
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एक बेबाक सच को बयान करती उत्कृष्ट कविता।
९५% पुरुष , माँ हो या पत्नी, उसे मात्र एक मशीनी औरत ही समझते हैं। टिप्पणियों में स्त्री का सम्मान करना एक बात है और दिल में स्त्री का सम्मान करना दूसरी बात। जो अपनी माँ और पत्नी का सम्मान करते हैं वे दुसरे पुरुषों की पत्नियों का भी सम्मान करते हैं , लेकिन अफ़सोस जब मौक़ा आता है तो ये तुच्छ मानसिकता का परिचय दे ही डालते हैं।
पुरुष सिर्फ छलता है , शब्दों के मकडजाल में फंसाकर स्त्री के सम्मान और अस्मिता को लूटता है। उसकी भावुकता और संवेदनशीलता के साथ खिलवाड़ करता है।
स्त्रियों को ईश्वर ने बहुत विराट व्यक्तित्व दिया है , अतः स्त्रियों को चाहिए की वे पुरुष को सब कुछ दें , सिवाय अपने दिल के। भूल से भी इन पर विश्वास ना करें ।
स्त्रियों को चाहिए की वे पुरुष को उसकी अज्ञानता के लिए क्षमा करती रहे । ( क्षमा बड़ों को ही शोभा देती है)
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bahut badiya sarthak rachna...
aabhar!
अपमान आप रिश्तो का करते हैं....sahi bat...
बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
इंडिया दर्पण पर भी पधारेँ।
bahut hi utkrist rachna.badhai
ज़रा सोचिये, अगर वो स्त्री कमाती भी हो फिर भी घर में उसे ATM , नौकरानी, बच्चों के स्कूल homework में मदद करने वाली और तमाम शादी ब्याह में लेन-देन की ज़िम्मेदारी थोपकर दो शब्द ये भी न कहे जाते हों कि तुम कितना कुछ करती हो, तो जानते हैं, कभी-२ उस स्त्री को घर का इतना काम करके ये सोचना पड़ता है, आखिर प्राण-पखेरू उड़ने के लिए खुद को और कितना थकाने की ज़रुरत होगी.
माँ, बहन, बेटी हो या बहु सबको सम्मान दिया जाना चाहिए ...
सुंदर भाव, सुंदर कृति .....
माँ बहन बेटी, बहू यो औरत सबका सम्मान हो ।
नारी के सम्मान की कविता ।
बहुत ही प्रशंसनीय प्रस्तुति..
सार्थक कविता....
उस दिन का इन्तेजार है जब इतने सादा बिम्बों में इतना ज्यादा दर्द न हो. उस दिन का भी जब जादू तो औरत के हाथ में है कहते हुए सारे लोग दुनिया के तमाम नामचीन 'शेफ' के मर्द होने की बात भूल जाते हैं.
उस दिन का इन्तेजार है जब इतने सादा बिम्बों में इतना ज्यादा दर्द न हो. उस दिन का भी जब जादू तो औरत के हाथ में है कहते हुए सारे लोग दुनिया के तमाम नामचीन 'शेफ' के मर्द होने की बात भूल जाते हैं.
Jeevan ka katu satya...
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कितनी बदल रही है हिन्दी!
नारी सृष्टि की असली रचयिता है ,नारी के बारे में अब इससे ज्यादा कुछ कहने की मेरी हिम्मत नहीं है |
नारी का अपमान करने वाले स्वयं अपना ही अपमान करते हैं और अपने को नीचे गिराते हैं ।
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From India
सुंदर रचना
क्या कहने
sach likha hai
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