यहाँ ज़िन्दा कौन है
ना आशा ना विमला
ना लता ना हया
देखा है कभी
चलती फिरती लाशों का शहर
इस शहर के दरो दीवार तो होते हैं
मगर कोई छत नहीं होती
तो घर कैसे और कहाँ बने
सिर्फ लाशों की
खरीद फरोख्त होती है
जहाँ लाशों से ही
सम्भोग होता है
और खुद को वो
मर्द समझता है जो शायद
सबसे बड़ा नामर्द होता है
ज़िन्दा ना शरीर होता है
ना आत्मा और ना ज़मीर
रोज़ अपनी लाश को
खुद कंधे पर ढोकर
बिस्तर की सलवटें
बनाई जाती हैं
मगर लाशें कब बोली हैं
चिता में जलना ही
उनकी नियति होती है
कुछ लाशें उम्र भर होम होती हैं
मगर राख़ नहीं
देखा है कभी
लाशों को लाशों पर रोते
यहाँ तो लाशों को
मुखाग्नि भी नहीं दी जाती
3 comments:
क्या बात है ... खुबसूरत सृजन / शुभकामनायें नव वर्ष व रचना-रचनाकार को /
इतनी मायूसी !!!!!
मर्मस्पर्शी रचना !
इसको अच्छी कहें... या दिल दुखाने वाली... समझ नहीं आता...~ बहुतों के दर्द को आपने अपनी रचना में समेट लिया..
~सादर!!!
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