कल
औरत
एक आवाज थी
दबा दी जाती थी
आज
औरत
एक टंकार हैं
अब लोग दबा रहे हैं
अपने कान
ताकि
टंकार सुनाई ना दे
कल की औरत की आवाज
आज की औरत की
टंकार बन चुकी हैं
© 2008-13 सर्वाधिकार सुरक्षित!
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
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14 comments:
बिल्कुल सही बात!
समाज में महिलाओं को लेकर एक असुरक्षा तो हैं.सिर्फ इसलिए नहीं कि औरत अब विरोध कर रही हैं बल्कि इसलिए भी कि वह अब कुछ भी पर्सनल ही नहीं रहने दे रही हैं बल्कि उसे पॉलिटिकल भी बना रही हैं.
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यदि कल
औरत
एक आवाज थी
दबा दी जाती थी... तो वही पनपाती थी... दोनों लताओं को.
— उच्छृंखल आचरणों से निकले कलहान्तरित आलापों के बीच शालीनता की अमृत लता, और
— कोमलकान्ताओं के हितैषी कटु स्वरों के बीच जन्मी भयाक्रांत विष बेल.
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हाँ, आज
औरत
एक टंकार है.... तभी शांत खड़े वृक्ष भी अपनी उन टहनियों को देते दुत्कार हैं...
जो टंकार करने वाली प्रत्यंचाओं के साथ बैंत बनकर करते ललकार हैं.
@
अब लोग दबा रहे हैं
अपने कान
ताकि
टंकार सुनाई ना दे..... न केवल इसलिये अपितु इसलिये भी कि
बैंत बने पुरुष के लचीलेपन को नज़रंदाज़ किया जा रहा है.
प्रत्यंचा का कसाव बैंत के लचीलेपन से ही तो संभव है.
एक का जितना अधिक लचीलापन
दूसरे की उतनी ही अधिक ताकत.......... है न कमाल का रूपक.
@
कल की औरत की आवाज
आज की औरत की
टंकार बन चुकी है..... या यूँ कहें कि कल की औरत का दबापन
दबते-दबते आज विस्फोट रूप ले रहा है....
'विचार' तो तमाम उठ खड़े हुए हैं... लेकिन उन्हें दबाकर शांत करना काव्य-भावों पर टिप्पणियों की आचार संहिता का पालन कहूँगा.
— सच है दबाव से दब्बूपना विकसता है... लेकिन यह भी सच है कि दबाव से संस्कार भी पड़ता है.
हद से बात गुजर जाए तो यही होता है...
बिल्कुल सही कहा है आपने ...
इस भावपूर्ण रचना के लिए बधाई स्वीकारें
नीरज
पहले औरत सिर्फ झंकार थी....
मजबूर कर दी गयी टंकार बन जाने को....
सुन्दर रचना..
भावपूर्ण रचना, बधाई ..........
सच कहा आपने
itna vidwesh!
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