सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Sunday, May 15, 2011

कब तक मेरे नारीत्व को ही मेरी उपलब्धि माना जायगा ??

देश को आजाद हुए , होगये है वर्ष साठ
पर आज भी जब बात होती है बराबरी कि
तो मुझे आगे कर के कहा जाता है
लो ये पुरूस्कार तुम्हारा है
क्योंकी तुम नारी हो ,
महिला हो , प्रोत्साहन कि अधिकारी हो
देने वाले हम है , आगे तुम्हे बढाने वाले भी हम है
मजमा जब जुडेगा , फक्र से हम कह सकेगे
ये पुरूस्कार तो हमारा था
तुम नारी थी , अबला थी , इसलिये तुम को दिया गया
फिर कुछ समय बाद , हमारी भाषा बदल जायेगी
हम ना सही , कोई हम जैसा ही कहेगा
नारियों को पुरूस्कार मिलता नहीं दिया जाता है
दिमाग मे बस एक ही प्रश्न आता
और
कब तक मेरे किये हुए कामो को मेरी उपलब्धि नहीं माना जाएगा ??
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और
कब तक मेरे नारीत्व को ही मेरी उपलब्धि माना जायगा ??



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Wednesday, May 11, 2011

माँ

रचना जी,

मैंने "माँ" विषय पर एक कविता लिखी है, अगर नारी की कविता ब्लॉग के लिए यह उपयुक्त हो तो मैं आप सबसे साझा करना चाहूँगा |


माँ

जीवन की रेखा की भांति जिसकी महत्ता होती है,

दुनिया के इस दरश कराती, वह तो माँ ही होती है |


खुद ही सारे कष्ट सहकर भी, संतान को खुशियाँ देती है,

गुरु से गुरुकुल सब वह बनती, वह तो माँ ही होती है |

जननी और यह जन्भूमि तो स्वर्ग से बढ़कर होती है,

पर थोडा अभिमान न करती, वह तो माँ ही होती है |


"माँ" छोटा सा शब्द है लेकिन, व्याख्या विस्तृत होती है,

ममता के चादर में सुलाती, वह तो माँ ही होती है |

संतान के सुख से खुश होती, संतान के गम में रोती है,

निज जीवन निछावर करती, वह तो माँ ही होती है |

शत-शत नमन है उस जीवट को, जो हमको जीवन देती है,

इतना देकर कुछ न चाहती, वह तो माँ ही होती है |


Thank you
Pradip Kumar
(9006757417)



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गृहणी

मैंने उसे देखा है

मौन की ऊँची-ऊँची दीवारों से घिरी

सपाट भावहीन चेहरा लिये वह

चुपचाप गृह कार्य में लगी होती है

उसके खुरदुरे हाथ यंत्रवत कभी

सब्जी काटते दिखाई देते हैं ,

कभी कपड़े निचोड़ते तो

कभी विद्युत् गति से बच्चों की

यूनीफ़ॉर्म पर प्रेस करते !

उसकी सूखी आँखों की झील में

पहले कभी ढेर सारे सपने हुए करते थे ,

वो सपने जिन्हें अपने विवाह के समय

काजल की तरह आँखों में सजाये

बड़ी उमंग लिये अपने पति के साथ

वह इस घर में ले आई थी !

साकार होने से पहले ही वे सपने

आँखों की राह पता नहीं

कब, कहाँ और कैसे बह गये और

उसकी आँखों की झील को सुखा गये

वह जान ही नहीं पाई !

हाँ उन खण्डित सपनों की कुछ किरचें

अभी भी उसकी आंखों में अटकी रह गयी हैं

जिनकी चुभन यदा कदा

उसकी आँखों को गीला कर जाती है !

कस कर बंद किये हुए उसके होंठ

सायास ओढ़ी हुई उसकी खामोशी

की दास्तान सुना जाते हैं ,

जैसे अब उसके पास किसीसे

कहने के लिये कुछ भी नहीं बचा है ,

ना कोई शिकायत, ना कोई उलाहना

ना कोई हसरत, ना ही कोई उम्मीद ,

जैसे उसके मन में सब कुछ

ठहर सा गया है, मर सा गया है !

उसे सिर्फ अपना धर्म निभाना है ,

एक नीरस, शुष्क, मशीनी दिनचर्या ,

चेतना पर चढ़ा कर्तव्यबोध का

एक भारी भरकम लबादा ,

और उसके अशक्त कन्धों पर

अंतहीन दायित्वों का पहाड़ सा बोझ ,

जिन्हें उसे प्यार, प्रोत्साहन, प्रशंसा और

धन्यवाद का एक भी शब्द सुने बिना

होंठों को सिये हुए निरंतर ढोये जाना है ,

ढोये जाना है और बस ढोये जाना है !

यह एक भारतीय गृहणी है जिसकी

अपनी भी कोई इच्छा हो सकती है ,

कोई ज़रूरत हो सकती है ,

कोई अरमान हो सकता है ,

यह कोई नहीं सोचना चाहता !

बस सबको यही शिकायत होती है

कि वह इतनी रूखी क्यों है !


साधना वैद



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Sunday, May 8, 2011

कशमकश



तब नहीं जानती थी मैं 
कि क्यों रोकती है मुझे अम्मी 
दुहाई दे दे कर जमाने की.

क्यों नहीं  खेलने देती मुझे 
हमसायों के संग 
देर तक अकेले में.

अब ,जब मैं 
स्वयं पहुंच गयी हूँ 
अम्मी की उम्र तक. 
और जान गयी हूँ 
उन दुहाइओं  का सच. 

और समझाना चाहती हूँ
अपनी मासूम कली को
तो वो भी
 नहीं  समझ पा रही मेरी बात.

वो भी पूछती है मुझसे
वही सवाल
जो तब 
मैं अपनी अम्मी से पूछती थी.

और अब 
मैं भी जूझती हूँ 
उसी कशमकश से, 
जिससे कभी 
मेरी अम्मी जूझती थी.


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