तुहिन कणों में हास्य मुखर
सौरभ से सुरभित हर मंजर
रंगों का फैला है जमघट
मूक प्रकृति को मिले स्वर
बाहर कितना सौन्दर्य बिखरा -
पर अंतर क्यों खाली है
काश कि ये सोन्दर्य सिमट
मुझमे भर दे उल्लास अमिट
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
Thursday, November 26, 2009
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4 comments:
waah !!
अदभुत । कविता के भाव और शब्दावली ने छुआ !
Great.
Kya baahar ka saundarya 'antar' ko bhar paayega bahi?
Bheetar ka saundarya to wahi samajhte hain jo swayam se pyar karte hain..
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