आजकल खामोश क्यों?
कलम
क्या जज्बा संघर्ष का
कुछ टूटने लगा है,
या फिर
अपनी लड़ाई में
बढ़ते कदमों के नीचे
कुछ कांटे बिछाए गए हैं
उनकी चुभन ने
थाम दिए है पग
कुछ इस तरह
रखो कदम
चरमराकर पिस जाएँ
और सिर उठाकर गुजर जाओ
उनके ऊपर से।
कांटे क्या?
लोहे की सलाखें भी
जज्बों के आगे
मुड़कर नतमस्तक हो जायेंगी
कटाक्ष , लांछन
हमेशा श्रृंगार के लिए
तैयार रहे हैं।
जब भी किसी नारी ने
अपनी सीमाओं से परे
कुछ कर के दिखाया है।
अंगुलियाँ उठती ही
रहती हैं।
आखिर कब तक
उठेंगी
अपनी मंजिल की तरफ
चुपचाप चले चलो
जब मिल जायेगी
यही अंगुलियाँ
झुककर
तालियाँ बजायेंगी
लांछन लगाने वाली
जबान
शाबाशी भी देगी।
बस
मेधा , क्षमता, शान्ति से,
जीत लो मन सबका.
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
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8 comments:
कलम खामोश क्यों हो , अच्छी प्रस्तुती और बेहद उम्दा प्रश्
wonderful expressions with feelings
behtreen abhivyakti.........utsah badhti rachna.
धा , क्षमता, शान्ति से,जीत लो मन सबका...
कलम अब शांत खामोश ना रहे ...बहुत शुभकामनायें ..!!
बहुत खूब ! आभार !
बेहद खूबसूरत…
शुभकामनाएं एवं धन्यवाद।
:)
क्या जज्बा संघर्ष का
कुछ टूटने लगा है....great....
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