बहती बलखाती चंचला
खुद में एक उन्माद लिए चलती हूँ
या कोई जुनून सवार है हम पर
मिलो मिल की राहें तय करती हुई
मंज़िल-ए-निशा की चाहत में
निकल पड़ी हूँ
एक गहरी उम्मीद के सहारे
इस राह पर चलते हुए हर मोड़ पर
कुछ बदलाव आएगा
मैं कोशिश करती रहूंगी
बिना रुके ,बिना डरे
कुछ हासिल हुआ है
कुछ बाकि ..
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!
सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता
Monday, November 24, 2008
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4 comments:
बहुत अच्छी लगी आपकी कविता !
घुघूती बासूती
'मंज़िल-ए-निशा' का अर्थ नहीं जानता। कृपया बतायें।
निकल पड़ी हूँ
एक गहरी उम्मीद के सहारे
इस राह पर चलते हुए हर मोड़ पर
बहुत सुंदर
bahut sunder abhivyakti haen mehak , nirantar is blog par likhae aur jaraa jaldi jaldi
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