सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Saturday, August 17, 2013

माँ

 माँ, ये नाम है एक अंतहीन विस्तार का
जीवन का, और जीवन के अवतार का
चेहरे की झुर्रियों से टपकती
गरिमा का नाम है माँ
ज़िंदगी की हर तारीख में
पंचांग सी है माँ
कभी सोचा है माँ के उच्चारण में
चंद्रबिन्दु क्यूं लगा है
माँ  की गोद में सर रखकर
वो शीतलता मिलती है
जो किसी वातानुकूलित कमरे में
सर्वथा अनुपस्थित होगी
माँ के उच्चारण में आ-कार भी है
परंतु माँ का आकार शाश्वत है
ममता भी माँ है , अनुसाशण भी माँ है
माँ वो शब्द है जिसका सिर्फ़ अनुवाद ही
शब्दकोष बता सकता है, एहसास नही
माँ एक पेड़ है जो फल भी देती है
और शीतल छाया भी
एक ऐसा पात्र जिसकी महिमा
छंद में नही समा पाती
दोहे छोटे पर जाते हैं
कविता अधूरी सी लगती है
माँ केवल नाम नही
सृजन की जननी है
हर नयी रचना के मूल में
मौजूद है एक माँ
जब भी जीवन अवतरित होता है
तो अवतरित होती है एक माँ

—सुलोचना वर्मा—
 http://sulochanaverma.blogspot.in/
© 2008-13 सर्वाधिकार सुरक्षित!

4 comments:

kuldeep thakur said...

आप ने लिखा... हमने पढ़ा... और भी पढ़ें... इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना शुकरवार यानी 23-08-2013 की http://www.nayi-purani-halchal.blogspot.com पर लिंक की जा रही है... आप भी इस हलचल में शामिल होकर इस हलचल में शामिल रचनाओं पर भी अपनी टिप्पणी दें...
और आप के अनुमोल सुझावों का स्वागत है...




कुलदीप ठाकुर [मन का मंथन]

कविता मंच... हम सब का मंच...

neelima garg said...

touching poem....

Asha Joglekar said...

हर नयी रचना के मूल में
मौजूद है एक माँ
जब भी जीवन अवतरित होता है
तो अवतरित होती है एक माँ

बहुत सुंदर और सच्ची कविता।

Dr Shalini Agam said...

bahut sunder