सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Saturday, June 8, 2013

सुलोचना वर्मा की दो कविताएं

विधवा
तुम्हारे अवशान को
कुछ ही वक़्त बीता है
तुम जा बसे हो
उस नीले नभ के पार
इंद्रधनुषी रंगो मे नहाकर
मुझे फिर से आकर्षित
करने को तैयार
उस रोज़ चौखट पर मेरा हाथ था
हर तरफ चूड़ियो के टूटने का शोर था
झुंझला उठती थी मैं जब तुम
बार बार उन्हे खनकाया करते थे
आज उनके टूटने का बेहद ही शोक था
तालाब का पानी सुर्ख था ना की
रक्तिम क्षितिज की परच्छाई थी
माथे की लाली को धोने
विधवा वहाँ नहाई थी
समाज के ठेकेदारो का
बड़ा दबदबा है
सफेद कफ़न मे मुझे लपेटा
कहा तू "विधवा" है
वो वैधव्य कहते है
मैं वियोग कहती हूँ
वियोग - अर्थात विशेष योग
मिलूँगी शीघ्र ही
उस रक्तिम क्षितिज के परे
मिलन को तत्पर
सतरंगी चूड़िया डाली है हाथो मे
पहन रही हूँ रोज़
तुम्हारे पसंदीदा
महरूनी रंग के कपड़े
कही सजती है दुल्हन भी
श्वेत बे-रंग वस्त्रो मे

स्त्री - रुबरु
लड़की, नारी, स्त्री
इन नामो से जानी जाती है
कई उपाधियाँ भी है
बेटी, पत्नी, माँ
अनेक रूपो मे नज़र आती है
पहले घर की रौशनी कहा
तो आँखो के नीचे काला स्याह क्यों?
निर्भया, दामिनी, वीरा भी कहा
पर तब जब कुछ लोगो ने अपनी
पाशविकता का प्रमाण भी दिया
कुछ ने तो परी कहा
परियो से पंख भी दे डाले
जब उनके उड़ने की बारी आई
वही पंख किसी ने काट डाले
ऐसे समाज से आज भी
करती वो निर्वाह क्यों?
लड़की का पिता अपना
सबसे मूल्यवान धन दान कर
कर जोड़े खड़ा है
उधर लड़के की माँ को
लड़के की माँ होने का
झूठा नाज़ बड़ा है
झूठा इसलिए की
उसकी संतान के लिंग निधारण मे
उसका कोई योगदान नही है
तो क्या लड़की के पिता का
कोई स्वाभिमान नही है?
पिता का आँगन छोड़कर
नया संसार बसाया है
माँ के आँचल की छाँव कहाँ
"माँ जैसी" ने भी रुलाया है
रुलाने का कारण?
आज उके बेटे ने
किसी दूसरी औरत को
प्यार से बुलाया है
आज वो इक माँ है
उस पीड़ा की गवाह है
जो उसकी माँ ने कभी
झूठी मुस्कान से दबाया था
बेटी के पैदा होने पर
कब किसने गीत गया था
पति के चले जाने के बाद
माथे की लाली मिटा दी लोगो ने
वो लाली जो उसके मुख का गौरव था
उसे कुलटा, मनहूस कहा
क्या सिर्फ़ पति ही
उसके जीवन का एकमात्र सौरभ था
शीघ्र ही वो दिवस भी आएगा
जब हरयाणा और राजस्थान की तरह
सारे विश्व से विलुप्त हो जाएगी ये "प्रजाति"
फिर राजा यज्ञ करवाएँगे
पुत्री रत्न पाने हेतु
राजकुमारियाँ सोने के पलनो मे पलेंगी
स्वयंवर रचाएँगी,
अपने सपनो के राजकुमार से
फिर द्रौपदी के पाँच पति होने पर
कोई सवाल ना कर सकेगा
उसके चरित्र पर कोई
टिप्पणी नही होगी
नारी को तब कोई भी
"वस्तु" नही कहेगा
संवेदनशील इस चाह को
"तथास्तु" ही कहेगा

11 comments:

Guzarish said...

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा सोमवार (10-06-2013) के चर्चा मंच पर लिंक
की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ

कबीर कुटी - कमलेश कुमार दीवान said...

nari kai sandarbh me bhavpravann kavitayen likhi hai ,achchi lagi badhai

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत सुन्दर और सार्थक रचनाएं....

अनु

Anonymous said...

आप सभी का धन्यवाद
सादर
सुलोचना वर्मा

Anonymous said...

आप सभी का धन्यवाद
सादर
सुलोचना वर्मा

Dr. Shorya said...

बहुत सुन्दर

Unknown said...


अनमोल / बहुत ही सुन्दर

Dr Shalini Agam said...

very beautiful

Dr Shalini Agam said...

well said

Unknown said...

डर तो इस बात का है लड़कियों की घटती जनसंख्या का भी इन समाज के ठेकेदारों पर कोई खासा असर नहीं दिखा। घर में बेटी नहीं चाहते, और लड़कियों की घटती आबादी की वजह से कई राज्यों में लड़के शादी नहीं कर पाते। इस मसले का भी हल ढूंढ निकाला इनहोनें। अब इछाओं की पूर्ति हेतु लड़कियां खरीदी और बेची जाने लगी। शर्मसार हो जाएगी एक दिन इंसानियत इस नंगेपन से।

SulochanaVerma said...

Thank you