सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Monday, June 10, 2013

आज की सीता



वो आज की सीता है
अपना वर पाने को
अब भी स्वय्म्वर रचाती है
वन में ही नही
रण में भी साथ निभाती है
अपनी सीमाएँ खुद तय करती है
लाँघेघी जो लक्ष्मण की रेखा है
परख है उसे ऋषि और रावण की
पर दुर्घटना को किसने देखा है
रावण का पुष्पक सीता को ले उड़ा
लोगो का जमघट मूक रहा खड़ा
लक्ष्मण को अपने कुल की है पड़ी
रावण लड़ने की ज़िद पे है अड़ा
राम ने किया है प्रतिकार कड़ा
कुलवधू का अपहरण अपमान है बड़ा
येन केन प्रकारेन युद्ध है लड़ा
फूट गया रावण के पाप का घड़ा
वैदेही अवध लौट आई है
जगत ने अपनी रीत निभाई है
आरोप लगा है जानकी पर
अग्निपरीक्षा की बारी आई है
तय किया है सती ने अब
नही देगी वो अग्नि परीक्षा
विश्वास है उसे खुद पर
क्यों माने किसी और की इच्छा
सहनशील है वो, अभिमानी है
किसी के कटाक्ष से विचलित
न होने की ठानी है
राम की अवज्ञा नही कर सकती
रघुकुल की बहूरानी है
दुष्कर क्षण है आया
क्या करे राम की जाया
भावनाओं का उत्प्लावन
नैनों में भर आया
परित्याग का आदेश
पुरुषोत्तम ने सुनाया
परित्यक्तता का बोध
हृदय में समाया
भूल किया उसने जो
वन में भी साथ निभाया
राजमहल का सुख
व्यर्थ में बिसराया
हृदय विरह व्यथा से व्याकुल है
मन निज पर शोकाकुल है
उसका त्याग और अर्पण ही
सारे कष्टों का मूल है
किकर्तव्यविमूढ पर संयमी
नही कहेगी जो उस पर बीता है
अश्रु को हिम बनाएगी
विडंबना ये है कि वो आज की सीता है

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Saturday, June 8, 2013

सुलोचना वर्मा की दो कविताएं

विधवा
तुम्हारे अवशान को
कुछ ही वक़्त बीता है
तुम जा बसे हो
उस नीले नभ के पार
इंद्रधनुषी रंगो मे नहाकर
मुझे फिर से आकर्षित
करने को तैयार
उस रोज़ चौखट पर मेरा हाथ था
हर तरफ चूड़ियो के टूटने का शोर था
झुंझला उठती थी मैं जब तुम
बार बार उन्हे खनकाया करते थे
आज उनके टूटने का बेहद ही शोक था
तालाब का पानी सुर्ख था ना की
रक्तिम क्षितिज की परच्छाई थी
माथे की लाली को धोने
विधवा वहाँ नहाई थी
समाज के ठेकेदारो का
बड़ा दबदबा है
सफेद कफ़न मे मुझे लपेटा
कहा तू "विधवा" है
वो वैधव्य कहते है
मैं वियोग कहती हूँ
वियोग - अर्थात विशेष योग
मिलूँगी शीघ्र ही
उस रक्तिम क्षितिज के परे
मिलन को तत्पर
सतरंगी चूड़िया डाली है हाथो मे
पहन रही हूँ रोज़
तुम्हारे पसंदीदा
महरूनी रंग के कपड़े
कही सजती है दुल्हन भी
श्वेत बे-रंग वस्त्रो मे

स्त्री - रुबरु
लड़की, नारी, स्त्री
इन नामो से जानी जाती है
कई उपाधियाँ भी है
बेटी, पत्नी, माँ
अनेक रूपो मे नज़र आती है
पहले घर की रौशनी कहा
तो आँखो के नीचे काला स्याह क्यों?
निर्भया, दामिनी, वीरा भी कहा
पर तब जब कुछ लोगो ने अपनी
पाशविकता का प्रमाण भी दिया
कुछ ने तो परी कहा
परियो से पंख भी दे डाले
जब उनके उड़ने की बारी आई
वही पंख किसी ने काट डाले
ऐसे समाज से आज भी
करती वो निर्वाह क्यों?
लड़की का पिता अपना
सबसे मूल्यवान धन दान कर
कर जोड़े खड़ा है
उधर लड़के की माँ को
लड़के की माँ होने का
झूठा नाज़ बड़ा है
झूठा इसलिए की
उसकी संतान के लिंग निधारण मे
उसका कोई योगदान नही है
तो क्या लड़की के पिता का
कोई स्वाभिमान नही है?
पिता का आँगन छोड़कर
नया संसार बसाया है
माँ के आँचल की छाँव कहाँ
"माँ जैसी" ने भी रुलाया है
रुलाने का कारण?
आज उके बेटे ने
किसी दूसरी औरत को
प्यार से बुलाया है
आज वो इक माँ है
उस पीड़ा की गवाह है
जो उसकी माँ ने कभी
झूठी मुस्कान से दबाया था
बेटी के पैदा होने पर
कब किसने गीत गया था
पति के चले जाने के बाद
माथे की लाली मिटा दी लोगो ने
वो लाली जो उसके मुख का गौरव था
उसे कुलटा, मनहूस कहा
क्या सिर्फ़ पति ही
उसके जीवन का एकमात्र सौरभ था
शीघ्र ही वो दिवस भी आएगा
जब हरयाणा और राजस्थान की तरह
सारे विश्व से विलुप्त हो जाएगी ये "प्रजाति"
फिर राजा यज्ञ करवाएँगे
पुत्री रत्न पाने हेतु
राजकुमारियाँ सोने के पलनो मे पलेंगी
स्वयंवर रचाएँगी,
अपने सपनो के राजकुमार से
फिर द्रौपदी के पाँच पति होने पर
कोई सवाल ना कर सकेगा
उसके चरित्र पर कोई
टिप्पणी नही होगी
नारी को तब कोई भी
"वस्तु" नही कहेगा
संवेदनशील इस चाह को
"तथास्तु" ही कहेगा