सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Thursday, July 7, 2011

चिड़ियों के साथ -1

© 2008-13 सर्वाधिकार सुरक्षित!
यह कविता 6 भागों में लिखी गई है प्रस्तुत है पहला भाग--

घर का एकाकी आँगन
और अकेली बैठी मैं
बिखरे हैं
सवाल ही सवाल
जिनमें उलझा
मेरा मन और तन !
अचानक छोटी-सी गौरैया
फुदकती हुई आई
न तो वह सकुचाई
और न शर्माई,
आकर बैठ गई
पास रखे एलबम पर
शायद दे रही थी सहारा
उदास मन को !
मैंने एलबम उठाई
और पलटने लगी
धुँधले अतीत को
खोलती रही
पन्ना-दर-पन्ना
डूबती रही
पुरानी यादों में!
मुझे याद आईं
अपनी दादी
जिनका व्यक्तित्व था
सीधा-सादा
पर अनुशासन था कठोर
उनके हाथों में रहती थी
हमारी मन-पतंग की डोर
जिनके राज्य में
लड़कियों को नहीं थी
पढ़ने-लिखने की
या फिर
खेलने की आज़ादी
जब भी
पढ़ते-लिखते देखतीं
पास आतीं
और समझातीं
'अपने इन अनमोल क्षणों को
मत करो व्यर्थ
क्योंकि
ज़्यादा पढ़ने-लिखने का
बेटी के जीवन में
नहीं है कोई अर्थ,
और फिर पढ़-लिखकर
विलायत तो जाएगी नहीं
घर में ही बैठकर
बस रोटियाँ पकाएगी’
लेकिन मैं चुपके-चुपके
छिप-छिपकर पढ़ती रही
आगे बढ़ती रही
और एक दिन चली गई
विदेश-यात्रा पर
दादी आज नहीं हैं
पर सुन रही होंगी
मेरी बातें
वो अपनी पैनी दृष्टि से
देख रही होंगी
मेरी सौगातें !
चिड़िया उड़ी
और
बैठ गई मुँडेर पर
देने लगी दाना
अपने नन्हे-नन्हे बच्चों को!

डॉ.मीना अग्रवाल

Wednesday, July 6, 2011

घर बनाने का अधिकार नारी का नहीं होता

घर बनाने का अधिकार
नारी का नहीं होता
घर तो केवल पुरुष बनाते हैं
नारी को वहाँ वही लाकर बसाते हैं
जो नारी अपना घर खुद बसाती हैं
उसके चरित्र पर ना जाने कितने
लाछन लगाए जाते हैं

बसना हैं अगर किसी नारी को अकेले
तो बसने नहीं हम देगे
अगर बसायेगे तो हम बसायेगे
चूड़ी, बिंदी , सिंदूर और बिछिये से सजायेगे
जिस दिन हम जायेगे
उस दिन नारी से ये सब भी उतरवा ले जायेगे
हमने दिया हमने लिये इसमे बुरा क्या किया


कोई भी सक्षम किसी का सामान क्यूँ लेगा
और ऐसा समान जिस पर अपना अधिकार ही ना हो
जिस दिन चूड़ी , बिंदी , सिंदूर और बिछिये
पति का पर्याय नहीं रहेगे
उस दिन ख़तम हो जाएगा
सुहागिन से विधवा का सफ़र
लेकिन ऐसा कभी नहीं होगा
क्यूंकि
घर बनाने का अधिकार
नारी का नहीं होता

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Tuesday, July 5, 2011

अफ़सोस

[goole se sabhar]



''मैं''

केवल एक देह नहीं

मुझमे भी प्राण हैं .

मैं नहीं भोग की वस्तु

मेरा भी स्वाभिमान .


मेरे नयन मात्र झील

से गहरे नहीं ;

इनमे गहराई है

पुरुष के अंतर्मन को

समझने की ,

मेरे होंठ मात्र फूल की

पंखुडियां नहीं ;ये खुलते

हैं जिह्वा जब बोलती है

भाषा उलझने की .


मेरा ह्रदय मोम सा

कोमल नहीं ;इसमें भावनाओं

का ज्वालामुखी है

धधकता हुआ ,

मेरे पास भी है मस्तिष्क

जिसमे है विचार व् तर्कों

का उपवन

महकता हुआ .


मेरा भी वजूद है

मैं नहीं केवल छाया

पर अफ़सोस पुरुष

इतना बुद्धिमान होकर भी

कभी ये समझ

नहीं पाया .


शिखा कौशिक

http://shikhakaushik666.blogspot.com