हर रोज यहाँ
संस्कारों को ताक पर रख कर,
बलात् हीं
इंसानियत की हदों को तोड़ा जाता है|
नारी-शरीर को
बनाकर कामुकता का खिलौना,
स्त्री-अस्मिता
को यहाँ हर रोज़ हीं रौंदा जाता है|
कर अनदेखा
विकृत-पुरुष-मानसिकता को यह समाज,
लड़कियों के
तंग लिबास में कारण ढूंढता नज़र आता है|
मानवाधिकार
के तहत नाबालिग बलात्कारी को मासूम बता,
हर इलज़ाम
सीने की उभार और छोटी स्कर्ट पर लगाया जाता है|
दादा के
हाथों जहाँ रौंदी जाती है छः मास की कोमल पोती,
तीन वर्ष की
नादान बेटी को बाप वासना का शिकार बनाता है|
सामूहिक
बलात्कार से जहाँ पाँच साल की बच्ची है गुजरती,
अविकसित से
उसके यौनांगों को बेदर्दी से चीर दिया जाता है|
शर्म-लिहाज
और परदे की नसीहत मिलती है बहन-बेटियों को,
और
माँ-बहन-बेटी की योनियों को गाली का लक्ष्य बनाया जाता है|
स्वयं
मर्यादा की लकीरों से अनजान, लक्ष्मण रेखा खींचता जाता है|
बेगैरत सा यह
समाज हम लड़कियों को हीं हमारी हदें बताता है|
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