सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Thursday, January 9, 2014

बेगैरत सा यह समाज . . . . .

हर रोज यहाँ संस्कारों को ताक पर रख कर,
बलात् हीं इंसानियत की हदों को तोड़ा जाता है|

नारी-शरीर को बनाकर कामुकता का खिलौना,
स्त्री-अस्मिता को यहाँ हर रोज़ हीं रौंदा जाता है|

कर अनदेखा विकृत-पुरुष-मानसिकता को यह समाज,
लड़कियों के तंग लिबास में कारण ढूंढता नज़र आता है|

मानवाधिकार के तहत नाबालिग बलात्कारी को मासूम बता,
हर इलज़ाम सीने की उभार और छोटी स्कर्ट पर लगाया जाता है|

दादा के हाथों जहाँ रौंदी जाती है छः मास की कोमल पोती,
तीन वर्ष की नादान बेटी को बाप वासना का शिकार बनाता है|

सामूहिक बलात्कार से जहाँ पाँच साल की बच्ची है गुजरती,
अविकसित से उसके यौनांगों को बेदर्दी से चीर दिया जाता है|

शर्म-लिहाज और परदे की नसीहत मिलती है बहन-बेटियों को,
और माँ-बहन-बेटी की योनियों को गाली का लक्ष्य बनाया जाता है|

स्वयं मर्यादा की लकीरों से अनजान, लक्ष्मण रेखा खींचता जाता है|
बेगैरत सा यह समाज हम लड़कियों को हीं हमारी हदें बताता है|



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