सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Saturday, September 21, 2013

दशहरा

क्यूँ पुतले को फूँककर
खुशी मनाई जाए
क्यूँ एक रावण के अंत का
जश्न मनाया जाए

कितने ही रावण विचर रहे
यहाँ, वहाँ, और उस तरफ
क्यूँ ना उन्हे मुखौटों से पहले
बाहर लाया जाए

इस साल दशहरे में नयी 
रस्म निभाई जाए

राम जैसे कई धनुर्धरो की
सभा बुलाई जाए
हर रावण को पंक्तिबद्ध कर
सज़ा सुनाई जाए
अंत पाप का करने को उनमे
आग लगाई जाए

हर घर में नई आशा का
दीप जलाया जाए
अपहरण को इस धरती से 
फिर भुलाया जाए
किसी वैदेही को कहीं अब
ना रुलाया जाए
गर्भ की देवियों को भी
बस खिलखिलाया जाए
सुलोचना वर्मा

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