सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Wednesday, July 16, 2008

सुनती हो जी

मां व्यस्त रहती थीं सुबह से
घर के कामों को निपटाने में
हमारी किताबें लगाने में
बाबू जी की आफिस की तैयारी में
उनकी बिखरी चीजों को समेटने में
उनकी कमीज में बटन टांकने में
सांझ को जब बाबू जी आते
और हम घर सिर पर उठाते
तो बाबू जी कहते,
सुन रही हो
आयो तुम भी बैठो कुछ देर को
आती हूं जी
कुछ चाहिए है आपको
पूछ कर मां लौट आती
इतना कह कर मां लग जाती अगले काम में
आज मां नहीं है हमारे बीच
बाबू जी हैं
अब कोई उनके बटन नहीं टाकता है
बाबू जी अकसर आपने टूटे बटन को छू कर
एक आह सी भरते हैं
और मन में बुदबुदाते हैं
सुनती हो जी
© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

7 comments:

Anonymous said...

bhut badhiya.

रंजू भाटिया said...

आज मां नहीं है हमारे बीच
बाबू जी हैं
अब कोई उनके बटन नहीं टाकता है
बाबू जी अकसर आपने टूटे बटन को छू कर
एक आह सी भरते हैं
और मन में बुदबुदाते हैं
सुनती हो जी

बेहद दिन को छु लेने वाली लगी यह बात मुझे ..सच है जब तक कोई आस पास है तब तक..पर उसके जाने के बाद सब कुछ अधुरा सा लगता है ..सुंदर ख्याल है

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi marmsparshi

शोभा said...

बहुत सुन्दर लिखा है। आँखों के सामने एक चित्र सा आगया।

Anita kumar said...

सुंदर अभिव्यक्ति

Anonymous said...

sunder kavita

संत शर्मा said...

Khubsurat