सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Friday, December 31, 2010

मंगलमय हो यह नव-वर्ष!


नया साल आया है फिर से 
                 सबके लिए यह  हो आदर्श.
नये साल में सत्य अहिंसा
                  हो सबका जीवन-निष्कर्ष.
भूल जाएँ सब रंजोगम को
                 मिलजुल करें विचार विमर्श.
सुख-समृधि , धान्य-धन बढ़े
                 मधुर बने जीवन संघर्ष.
सुख-चैन रहे सभी दिलों में
                 गाएँ मिल सब गीत सहर्ष.
हे प्रभु! यही विनती हमारी
                  मंगल मय हो यह नव-वर्ष.


© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!

Monday, December 20, 2010

आँचल

प्रेम से युक्त है वह आँचल,
 स्नेह से संयुक्त है वह आँचल,
   ममता का आगार है वह आँचल,
    प्यार का भंडार है वह आँचल,
  सुख में प्यार छलकाता है वह आँचल,
 दुःख में गले लगाता है वह आँचल,
सब पर प्यार लुटाता है वह आँचल,
  सबको पास बुलाता है वह आँचल,
   शक्ति से परिपूर्ण है वह आँचल,
     धेर्य से सम्पूर्ण है वह आँचल,
   और नहीं कोई ,वह है  ,
"माँ का आँचल"

Saturday, December 18, 2010

ऐसी माँ न हो!

                       रोज देखते हैं बल्कि ऐसा कम ही देखते हैं. कभी कोई कन्या सड़क पर फ़ेंक दी, कभी मंदिर में और कभी अस्पताल में ही छोड़ कर चल दिए. पढ़ लिया और रख दिया लेकिन कभी ऐसी ही कोई बात द्रवित कर जाती है. ऐसे ही आज ही ये खबर पढ़ी और फिर कुछ लिख ही गया उस कन्या का दर्द उसकी जुबानी ही छलक गया.

माँ , ओ मेरी माँ !
गर जिन्दा रही मैं
तो मैं लड़की ही रहूंगी,
बस तू ये दुआ कर -
जिसको तूने मरने को फेंका  था
बस वो जिन्दा रह जाए.
ईश्वर मुझे बचा ले,
आँचल तेरा नहीं था
गर मेरे नसीब में,
कचरे के हवाले तो 
तूने इस तरह से न किया होता.
तडपी मैं बहुत हूँ,
कुत्तों ने जब  नोचा था,
लहुलुहान मेरे तन से ज्यादा पीड़ा
मेरे मन को हो रही थी.
नफरत की चिंगारी एक
मन में सुलग रही थी.
वो खुदा का बंदा था
देखा जिसने कचरे में
सीने से लगा कर मुझको
अस्पताल ले गया था .
उससे बड़े दयालु वे हैं
कितना सहेज कर 

घावों को धो सुखाकर
 दवा मुझे लगाई औ'
फाहों में मुझे रखा.
माँ गर जिन्दा रही मैं
लड़की तो मैं रहूंगी
पर तेरी जैसे
निर्मम माँ न बनूगी,
अपने जिगर के टुकड़े को
तेरे जैसे न तजूंगी.
गर जीने नहीं देना था,
तो जीवन क्यों दिया था?
टकराऊंगी   जहाँ से 
आँचल उसे मैं दूँगी, 
ज़माने की हर हवा से 
बचा के उसको हरदम 
फूल सा कोमल जीवन उसे मैं दूँगी.

Thursday, December 16, 2010

स्त्री का उदघोष

कोमल नहीं हैं कर मेरे;
न कोमल कलाई है;
दिल नहीं है मोम का
प्रस्तर की कड़ाई है.
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नहीं हैं झील सी ऑंखें;
हैं इनमे खून का दरिया;
मै हूँ मजबूत इरादों की
नहीं मै नाजुक -सी गुडिया.
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उठेगा वार तेरा जो मुझे
दबाने के लिए;
उसे मै तोड़ डालूंगी
भले पहने हूँ चूड़िया.
************************
मुझे जो सोचकर अबला
करोगे बात शोषण की;
मिटा दूंगी तेरी हस्ती
है मुझमे आग शोलों की.
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Sunday, December 12, 2010

सीढ़ियाँ दर सीढ़ियाँ

© 2008-10 सर्वाधिकार सुरक्षित!

एक दिन
अपने ही विचारों में खोई
बैठी थी अकेली
तभी अचानक
प्यारी सखी चमेली
आई मेरे पास
और बोली
सुन ओ सहेली !
बता मेरी एक
साधारण-सी पहेली,
यह समाज और
समाज के सुसंस्कृत लोग
क्यों हो गए हैं संकुचित ?
क्यों खोए हैं अपने में ?
क्यों हैं सभी कुंठाग्रस्त ?
या फिर क्यों हैं
एक-दूसरे से त्रस्त ?
उत्तर साधारण-सा है बहन
आज किसी को
किसी के दुख से
न तो है कोई सरोकार,
न कोई मतलब
और न कोई दरकार,
कोई नहीं है सुखी
दूसरे के सुख से,
तो किसी के दु:ख से भी
नहीं हैं दुखी,
शायद होते हैं ऐसे ही
निर्विकार लोग
जिन्हें किसी से
नहीं होती है प्रीत
जो नहीं होते हैं
किसी के शत्रु
और न किसी के मीत ।
सखी की बात सुनकर
मन में विचारों को गुनकर
मैंने समझाया उसे
जीने का मतलब---
'सखी रोली !
बड़ी है तू भोली
क्या इतना नहीं जानती
इसमें है अपनी भलाई,
क्योंकि इस जग में
हरेक उठने वाले को
मिलती है एक चुनौती,
उसके लिए यह
होती है परीक्षा की घड़ी
कि उसमें कितना है धैर्य
और कितना आक्रोश,
या फिर कितना है रोष ।
इस चुनौती को
जो करता है स्वीकार
और नहीं करता तकरार
पाता है वह एकदिन
ऊँचाई का सर्वोच्च शिखर
जहाँ पहुँचना असम्भव नहीं
तो आसान भी नहीं ।
मेरी सलोनी-सी
प्यारी-सी सखी ।
मत हो उदास,
बात को ध्यान से समझ,
सुन और गुन
मत रख किसी से आस,
न कर किसी पर विश्वास,
निरंतर बढ़ती रह आगे
चढ़ती रह जीवन की सीढ़ियाँ
सीढ़ियाँ-दर-सीढ़ियाँ,
वह दिन दूर नहीं
जब पहुँचेगी तू
अंतिम सोपान पर
न होगा वहाँ स्वार्थ
न पीड़ा, न त्रास,
जहाँ मिलेगी नई दिशा
नई खुशी और
मिलेगा नया सवेरा
नया उल्लास ।

डॉ. मीना अग्रवाल

nari ke tulya keval nari

क्या कभी कोई कर पायेगा
   तुलना नारी के नाम से,
     क्या कोई अदा कर पायेगा
         सेवा की कीमत दाम से.
नारी के जीवन का पल-पल
   नर सेवा में समर्पित है,
      नारी के रक्त का हरेक कण
          नर सम्मान में अर्पित है.
क्या चुका पायेगा कोई नर
   प्यार का बदला काम से,
       क्या कोई अदा कर पायेगा
           सेवा की कीमत दाम से.
माँ के रूप में हो नारी
  तो बेटे की बगिया सींचें,
    पत्नी के रूप में होकर वह
       जीवन रथ को मिलकर खींचें.
क्या कर सकता है कोई नर
   दूर उनको मुश्किल तमाम से,
      क्या कोई अदा कर पायेगा
         सेवा की कीमत दाम से.
बहन के रूप में हो नारी
    तो भाई की सँभाल करे,
      बेटी के रूप में आकर वह
         पिता सम्मान का ख्याल करे.
क्या दे पायेगा उनको वह
   जीवन के सुख आराम से,
       क्या कोई अदा कर पायेगा
          सेवा की कीमत दाम से.

Saturday, December 11, 2010

एक बेहतरीन पोस्ट "मैं यह जान गयी हूँ कि…"

मैं यह जान गयी हूँ कि कितना ही बुरा क्यों न हुआ हो और आज मन में कितनी ही कड़वाहट क्यों न हो, यह ज़िंदगी चलती रहती है और आनेवाला कल खुशगवार होगा.

मैं यह जान गयी हूँ कि किसी शख्स को बारिश के दिन और खोये हुए लगेज के बारे में कुछ कहते हुए, और क्रिसमस ट्री में उलझती हुई बिजली की झालर से जूझते देखकर हम उसके बारे में बहुत कुछ समझ सकते हैं.

मैं यह जान गयी हूँ कि हमारे माता-पिता से हमारे संबंध कितने ही कटु क्यों न हो जाएँ पर उनके चले जाने के बाद हमें उनकी कमी बहुत शिद्दत से महसूस होती है.

मैं यह जान गयी हूँ कि पैसा बनाना और ज़िंदगी बनाना एक ही बात नहीं है.

मैं यह जान गयी हूँ कि ज़िंदगी हमें कभी-कभी एक मौका और देती है.

मैं यह जान गयी हूँ कि ज़िंदगी में राह चलते मिल जाने वाली हर चीज़ को उठा लेना मुनासिब नहीं है. कभी-कभी उन्हें छोड़ देना ही बेहतर होता है.

मैं यह जान गयी हूँ कि जब कभी मैं खुले दिल से कोई फैसला लेती हूँ तब मैं अमूमन सही होती हूँ.

मैं यह जान गयी हूँ कि मुझे दर्द सहना गवारा है मगर दर्द बन जाना मुझे मंज़ूर नहीं.

मैं यह जान गयी हूँ कि हर दिन मुझे किसी को प्यार से थाम लेना है. गर्मजोशी से गले मिलना या पीठ पर दोस्ताना धप्पी पाना किसी को बुरा नहीं लगता.

मैं यह जान गयी हूँ कि लोग हमारे शब्द और हमारे कर्म भूल जाते हैं पर कोई यह नहीं भूलता कि हमने उन्हें कैसी अनुभूतियाँ दीं.

मैं यह जान गयी हूँ कि मुझे अभी बहुत कुछ सीखना है.

माया ऐन्जेलू

ये पोस्ट निशांत ने अपने ब्लॉग पर दी हैं । माया ऐन्जेलू के नाम को क्लिक किया तो काफी जानकारी मिली इनके बारे मे । निशांत के कमेंट्स ब्लोग्स पर पढ़ती रहती हूँ और नारी आधरित मुद्दों पर भी इनका साथ मिलता रहता हैं
सोच आज इनके ब्लॉग कि इस पोस्ट को अतिथि पोस्ट के रूप मे यहाँ दे दूँ ।


Thursday, December 9, 2010

वह नारी

देखा था मैंने 'उस' नारी को,
फूलों सी कोमल सुकुमारी को |
जन्म लेते होठों पर उसकी एक हँसी खिली थी,
परियों सी प्यारी वह एक नन्ही कली थी|
उन आँखों में कुछ आशा थी,
पर चारों ओर निराशा थी|
निराशा थी कुछ गरीबी की,
कुछ थी 'उसके' जन्म की |
डर था कुछ चिंताएं थीं ,
भय और कुछ शंकाएँ भी |
क्या यह नन्ही कली खिल पायेगी ?
या गरीबी के धुल में मिल जाएगी ?
क्या यौवन का फूल हँस पायेगा ?
या किसी के हाथों मसला  जायेगा ?
सीता के लिए था एक रावण,
जो अब कदम कदम पर बसता है |
महाभारत में था था एक दुर्योधन,
पग पग पर जो अब हँसता है |
सीता को तो राम मिले थे,
द्रौपदी को कृष्ण सहाय हुए थे |
इसे भी कोई राम मिलेगा क्या ?
इसके लिए कोई कृष्ण बनेगा क्या ?
नियति उसके साथ में नहीं था,
मौत भी उसके हाथ में नहीं था |
जन्म लिया तो उसे जीना ही था,
गम को खाके आंसुओं को पीना हीं था|
अध् खिली थी यौवन  की कली अभी ,
पर संकटें आ चुकी थी सभी |
हर एक कदम पे रावण, तो दुसरे पर दुर्योधन खड़ा था |
न राम ना हीं रक्षा में उसके कोई कृष्ण खड़ा था |
मौके पर सबने उसे अंगूठा हीं दिखलाया |
काम आया तो बस आत्मबल हीं काम आया |
नहीं थी वह निर्बल, शक्तिहीन, अबला |
थी वह तो सबल, सशक्त, सबला |
देखा है आज भी मैंने उस नारी को ,
कष्टों में घिरी देखा उस  बेचारी को |
होठों पर उसके अब हँसी नहीं है ,
आँखों में अब आशाएं नहीं है |
गरीबी की भट्टी और भाग्य के आंच में खूब तपी है ,
पर चमकता सोना नहीं वह तो पत्थर बन चुकी है |
पत्थर क्यूँ? क्यूंकि वह रोती  नहीं है ?
री अभागिनी तू क्यूँ रोती नहीं है ?
हाँ वह क्यूँ रोएगी ? रोकर वह क्या पायेगी ?
रोने से क्या नियति बदल जाएगी?
विधि को उसपे तरस  आएगी ?
नहीं वह नहीं रोएगी कभी नहीं रोएगी |
भाग्य नहीं कर्म हीं की होकर रहेगी |
कर्म हीं से से तो वह रोटी पायेगी |
भाग्य भरोसे बस आँसु पायेगी |
रोकर वह क्या क्या कर पायेगी ?
क्या भाग्य को बदल पायेगी ?
नहीं वह दरिद्र है, दरिद्र हीं रह जाएगी |
नारी है बस नारी हीं रह जाएगी |
पत्थर है सोना नहीं बन पायेगी |
हाँ मजदूरनी है बस वही बनी रह जाएगी |
                           .................आलोकिता 
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Wednesday, December 8, 2010

मैं बेटी का हक मांगूंगी.......

क्यों किया पता हे मात -पिता !
कि कोख में मैं एक बेटी हूँ ,
उस पर ये गर्भ-पात निर्णय ;
सुनकर मैं कितनी चिंतित हूँ ?
*************************
हाँ ! सुनो जरा खुद को बदलो ,
मैं ऐसे हार न मानूगी ,
हे ! माता तेरी कोख में अब
मैं बेटी का हक़ मागूंगी !
**************************
बेटी के रूप में जन्म लिया ,
क्यों देख के मुरझाया चेहरा ?
मैं भी संतान तुम्हारी हूँ ,
फिर क्यों छाया दुःख का कोहरा ?
हाँ ! सुनो जरा खुद को बदलो !
मैं ऐसे हार न मानूगी ,
हे ! माता तेरी गोद में अब
मैं बेटी का हक़ मगूंगो !
*****************************
लालन -पालन मेरा करके
मुझको भी जीने का हक़ दो !
मैं करू तुम्हारी सेवा भी ,
ऐसी मुझमे ताकत भर दो ,
बेटी होकर ही अब मैं तुमसे
बेटों जैसा हक़ मागूंगी !
हे ! माता tere मन में अब
मैं बेटी का हक़ मागूंगी !

अनुमति दो माँ ...


चरण-स्पर्श का अनुमति दो माँ 
चरणों से दूर  मत करो 

 जो  अधिकार  जन्म से  है मिला 
उस अधिकार को मत हरो 

ऐसा क्या अनर्थ हुआ  मुझसे 
कि आपने मूंह फेर लिया 

नौ महीने  गर्भ में स्थान दिया 
और दुनिया में लाकर त्याग दिया 

माना कि गलती थी मेरी 
आपकी  सुध मैंने नही लिया 

पर ममता नही होता क्षण-भंगुर 
कभी त्याग दिया कभी समेट लिया 

माना मै हूँ स्वार्थ का मारा 
माँ की ममता न पहचान पाया 

पर आप ने भी अधिकार न जताया 
मुझे पराया  कर तज दिया 

अब मेरी बस इतनी इच्छा है 
आप की गोद में  वापस आऊँ 

अपने संतान से आहत हुआ जब  
लगा आपकी  गोद में ही सिमट जाऊं 

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Friday, December 3, 2010

ana कि कविता --- तोडती पत्थर

पत्थरों को तोडती वो अधमरी सी बुढ़िया
बन गयी है वो आज बेजान सी गुडिया
कभी वो भी रहती थी महलों के अन्दर
कभी थी वो अपने मुकद्दर का सिकंदर
असबाबों से था भरा उसका भी महल
नौकरों और चाकरों का भी था चहल पहल
बड़े घर के रानी का राजा था दिलदार
नहीं थी कमी कुछ भी भरा था वो घरबार
किलकारियां खूब थी उस सदन में
अतिथि का स्वागत था भव्य भवन में
पूरे शहर में था ढिंढोरा इनका
गरीब जो आये न जाए खाली हाथ
शहर के धनिकों में था इनका स्वागत
शहर बड़े लोग थे इनसे अवगत
पर चाहो हमेशा जो होता नहीं वो
कठीनाइयों से भरे दिन आ गए जो
व्यवसाय की हानि सम्भला न उनसे
बेटे-बहू ने रखा न जतन से
बड़े घर के राजा न सहा पाए वो सब दिन
वरन कर लिया मृत्यु को पल गया छिन
बुढ़िया बेचारी के दिन बद से बदतर
गर्भधारिणी माँ को किया घर से बेघर
करती वो क्या कोई चारा नहीं था
इस उम्र में कोई सहारा भी नहीं था
मेहनत मजदूरी ही थी उसकी किस्मत
लो वो आ गयी राह पर तोडती पत्थर

ana


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Wednesday, December 1, 2010

आलोकिता कि कविता

हमारे देश में देवियों की पूजा की जाती है बेटिओं को लक्ष्मी का रूप माना जाता है | फिर भी आज हमारे देश में कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध को अंजाम दिया जाता है | गर्भपात के दौरान मारी जाने वाली बच्चियों कि जगह खुद को रखकर कल्पना कीजिये तो रूह तक कांप उठेगी | कैसा लगता होगा उन्हें ? क्या सोचती होंगी वे ?शायद वे भी कुछ कहना चाहती होंगी अपनी माँ से ,अपने परिवार वालों से .......................................

अजन्मी बेटी
~~~~~~~~~~
सुनो मुझे कुछ कहना है,
हाँ तुमसे हीं तो कहना है |
क्या कहकर तुम्हे संबोधित करूँ मैं ?
मैं कौन हूँ कैसे कहूँ मैं ?
एक अनसुनी आवाज़ हूँ मैं ,
एक अन्जाना एहसास हूँ मैं ,
एक अनकही व्यथा हूँ मैं ,
हृदय विदारक कथा हूँ मैं |
एक अजन्मी लड़की हूँ मैं |
मैं हूँ एक अजन्मी लड़की !
हाँ वही लड़की जिसे तुम जीवन दे न सकी,
हाँ वही मलिन बोझ जिसे तुम ढो न सकी |
अगर इस दुनिया में मैं आती, तुम्हारी बेटी कहलाती |
कहकर प्यार से माँ तुम्हे गले लगाती |
माँ तुम्हे कंहूँ तो कैसे ? जन्म तुमने दिया ही नहीं |
बेटी खुद को कहूँ तो कैसे ?जन्म तुमने दिया ही नहीं |
तुम सब ने मिलकर निर्दयता से मुझे मार डाला |
मेरे नन्हे जिस्म को चिथड़े चिथड़े, बोटी बोटी कर डाला |
सिर्फ लड़की होने की सजा मिली मुझको |
फाँसी से भी दर्दनाक मौत मिली मुझको |
सोचो क्या इस सजा की हकदार थी मैं ?
कहो तो क्या इतनी बड़ी गुनाहगार थी मैं ??
इंदिरा गाँधी, किरण बेदी मैं भी तो बन सकती थी!
नाम तुम्हारा जग में रौशन मैं भी कर सकती थी !
दलित, प्रताड़ित अबला नहीं सबला का रूप धर सकती थी|
तुम्हारे सारे दुःख संताप मैं भी तो हर सकती थी |
तुम्हारी तमनाएँ आशाएं सब को पूरा कर सकती थी |
न कर सकती तो बस इतना बेटा नहीं बन सकती थी |
बेटे से इतना प्यार तो बेटी से इतनी घृणा क्यूँ ?
दोनों तुम्हारे हीं अंश फिर फर्क उनमे इतना क्यूँ ?
काश ! तुम मुझे समझ पाती ,
प्यार से बेटी कह पाती |
काश ! मैं जन्म ले पाती,
जीवन का बोझ नहीं, प्यारी बेटी बन पाती |


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बेटी का जीवन

बेटी का जीवन भी देखो कैसा अद्भुत होता है ,
देख के इसको पाल के इसको जीवनदाता रोता है.
पैदा होती है जब बेटी ख़ुशी ना मन में आती है,
बाप के मुख पर छाई निराशा माँ भी मायूस हो जाती है,
विदा किये जाने तक उसके कल्पित बोझ को ढोता है,
देख के इसको पाल के इसको जीवनदाता रोता है.
वंश के नाम पर बेटों को बेटी से बढ़कर माने,
बेटी के महत्व को ये तो बस इतना जाने,
जीवन में दान तो बस एक बेटी द्वारा होता है,
देख के इसको पाल के इसको जीवनदाता रोता है.