सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Monday, March 29, 2010

नारी और नदी

नारी ने सीखा नदी से बहना
मौसम की हर मार को सहना
क्योंकि नदी बहने के साथ-साथ
सिखाती है गतिशील रहना
देती है संदेश निरंतरता का
देती है संदेश तत्परता का
नदी देती है शीतलता हृदय को
देती है तरलता मन को
सिखाती है बँधना किनारों से
सिखाती है जुड़ना धरती से !
नदी कराती है समन्वय मौसम से
कराती है मिलन धारा से
देती है संदेश प्रेम का
नदी नहीं सिखाती भँवर में फँसना
वह तो सिखाती है भँवर से उबरना !
नदी नाम है निरंतरता का
नदी नाम है एकरूपता का
नदी ही नाम है समरूपता का
नदी कल्याणी है मानवता की
वह तो संवाहक है नवीनता की
आओ हम भी सीखें नदी से
कर्मपथ पर गतिशील रहना
कंटकाकीर्ण मार्ग पर
निरंतर आगे ही आगे चलना,
नदी की ही तरह निरंतर बहना,
और हर मौसम में
या फिर तूफ़ानी क्षणों में
दृढ़ता के साथ
अडिग खड़े रहकर
ऊँचाइयों के चरम शिखर की
अंतिम सीढ़ी पर पहुँचना !


डॉ.मीना अग्रवाल

नारी की सृष्टि

समस्त संसार में
एक क्षेत्र है जहां
पुरुष का प्रवेश नहीं
नितांत नारी की
सृष्टि है वह
पुरुष का समावेश सही,
गृह संसार का अनाड़ी है
पुरुष प्राणी
दुनिया जीतने का
दावा करने वाले
भी बगलें झांकते
यहां!
नहीं असंभव ब्रह्माण्ड में विचरना
किन्तु
कठिन है
रसोई में चावल ढूंढना;
अन्नपूर्णा के
सपनों का स्वर्ग!!!
जहां यथार्थ से
लोहा लिया जाता है
वर्तमान को
संवारते संवारते
शुभकामनाओं के साथ
भविष्य रचा जाता है
तमाम झंझावातों का
कवच है,
शंका है न
डर ,झिझक
डगर के कांटों से
बिना किसी बाधा के
नारी निर्द्वदं
है चलती जाती
साम्राज्ञी की भांति
सभी बाधायें
चटकाती जाती
चुटकियों में सुलझाती
विकट
पारिवारिक पहेलियां,
मानस संसार की
व्याधियों का दमन
धैर्य से करती नारी
सहज सधे हाथों से
साधती
घर परिवार और
परिचित
बच्चों से लेकर
नौकरों तक
भर ममत्व उंड़ेलती ;
समाज
परिवार
बंधुजन को एक
डोर से बांधती;
पुरातन से
अधुनातन
सदैव
रुप भले
नवीन नित
किंतु सदावाही है
उसमें
ममत्व
प्रेम
स्नेह
संघर्ष
संतोष.........किरण राजपुरोहित नितिला

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Sunday, March 28, 2010

इसलिये मुझे फक्र है कि मै दूसरी औरत हूँ ।

नहीं सौपा मैने अपना शरीर उसे
इसलिये
कि उसने मेरे साथ सात फेरे लिये
कि उसने मुझे सामाजिक सुरक्षा दी
कि उसने मेरे साथ घर बसाया
कि उसने मुझे माँ बनाया
सौपा मैने अपना शरीर उसे
इस लिये
क्योंकि "उस समय" उसे जरुरत थी
मेरे शरीर की , मेरे प्यार , दुलार की
और उसके बदले नहीं माँगा मैने
उससे कुछ भी , ना रुपया , ना पैसे
ना घर , ना बच्चे , ना सामाजिक सुरक्षा
फिर भी मुझे कहा गया की मै दूसरी औरत हूँ !!
घर तोड़ती हूँ ।
प्रश्न है मेरा पहली औरतो से , क्या कभी तुम्हें
अपनी कोई कमी दिखती है ??
क्यो घर से तुम्हारे पति को कहीं और जाना पड़ता है ?
क्यो हमेशा तुम इसे पुरुष की कमजोरी कहती हो ?
क्यो कभी तुम्हें अपनी कोई कमजोरी नहीं दिखती ?
जिस शरीर को सौपने के लिये ,
तुम सात फेरो की शर्ते लगती हो ,
उसे तो मैने योहीं दे दिया बिना शर्त ,
बिना शिक़ायत
इसलिये मुझे फक्र है कि मै दूसरी औरत हूँ ।



ये एक पुरानी कविता हैं लेकिन आज कल के संदर्भो मे इतनी पुरानी भी नही हैं ब्लॉग पर हर जगह आज लिव इन रिलेशन पर चर्चा हो रही हैं जबकि मैने ये कविता १७ दिसम्बर २००७ को लिखी थी और फिर १० जुलाई 2008 कि पोस्ट मै इसी ब्लॉग पर इस कविता को पुनेह डाला था और काफी बहस हुई थी आप ही देखे और अपने विचार दे
उसी पुराने लिंक पर
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Friday, March 26, 2010

प्रीत --- वि-- प्रीत

भाग १
सालों बाद
घर से बाहर रहा
पति लौट आया
घर मे ताँता लग गया
बधाईयों का, मिठाईयों का
आशीष वचनों का, प्रवचनों का
गैस पर चाय बनाती
पत्नी सोच रही हैं
क्या वो सच में भाग्यवान हैं ?
कि इतना घूम कर पति
वापस तो घर ही आया
पर पत्नी खुश हैं कि
अब कम से कम घर से बाहर
तो मै जा पाऊँगी
समाज मै मुहँ तो दिखा पाऊँगी
कुलक्षिणी के नाम से तो नहीं
अब जानी जाऊँगी

भाग २
सालों बाद
घर से बाहर रही
पत्नी लौट आयी
घर में एक सन्नाटा है
व्याप्त है मौन
जैसे कोई मर गया हो और
मातम उसका हो रहा है
दो चार आवाजें जो गूँज रही हैं
वह पूछ रही हैं
कुलक्षिणी क्यों वापस आयी ??
जहाँ थी वहीं क्यों नहीं बिला गयी
सिगरेट के कश लेता
सोच रहा हैं पति
समाज मे क्या मुँह
अब मै दिखाऊँगा
कैसे घर से बाहर
अब मै जाऊँगा
और घर में भी
इसके साथ
अब कैसे मैं रह पाऊँगा ??

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Thursday, March 18, 2010

हम किराये पर लेते हें विदेशी कोख

हम बहुत तरक्की कर रहें हें
पहले बेटियों को मारते थे
बहुओ को जलाते थे
अब तो हम
कन्या भ्रूण हत्या करते है
दूर नहीं है वो समय
जब हम फक्र से कहेगे
पुत्र पैदा करने के लिये
हम किराये पर लेते हें
विदेशी कोख

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Tuesday, March 16, 2010

तुम क्यूं

तुम क्यूं झेल रही हो
पुरूषों को
जो नित्य ही मनुष्य के खोल
से बाहर आते हैं,
अधिकतर पुरूष का भी लबादा
नहीं रखते
बन जाते है हाड़ मांस के वहषी
सिर्फ मादा ही नजर आती है
हर नारी
जो कभी माँ,बहन-पत्नि होती है,
भभूका सा काबिज हो जाता है
हर लेता है समस्त विवेक
पुरूष से,मनुष्य से,
ओ! कापुरूषों क्यूं नही छोड़ देते
ये वहशीपन
जो दुनिया को गर्त में धकेल रहा है!
..किरण राजपुरोहित नितिला

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Thursday, March 11, 2010

वह चीख चीखकर कहती है मै आज की नारी हूँ

वह आज की नारी है
हर बात मे पुरुष से उसकी बराबरी है
शिक्षित है कमाती है
खाना बनाने जेसे
निकृष्ट कामो मे
वक़्त नहीं गवाँती है
घर कैसे चलाए
बच्चे कब पैदा हो
पति को वही बताती है
क्योकि उसे अपनी माँ जैसा नहीं बनना था
पति को सिर पर नहीं बिठाना था
उसे तो बहुत आगे जाना था
अपने अस्तित्व को बचाना था
फिर क्यों
आज भी वह आंख
बंद कर लती है
जब की उसे पता है
की उसका पति कहीँ और भी जाता है
किसी और को चाहता है
समय कहीं और बिताता है
क्यों आज भी वह
सामाजिक सुरक्षा के लिये
ग़लत को स्विकारती है
सामाजिक प्रतिशठा के लिये
अपनी प्रतिशठा को भूल जाती है
और पति को सामाजिक प्रतिशठा कव्च
कि तरह ओढ़ती बिछाती है
पति कि गलती को माफ़ नहीं
करती है
पर पति की गलती का सेहरा
आज भी
दूसरी औरत के स्रर पर
रखती है
माँ जेसी भी नहीं बनी
और रूह्रिवादी संस्कारो सै
आगे भी नहीं बढी.
फिर भी वह चीख चीखकर कहती है
मै आज की नारी हूँ
पुरुष की समान अधिकारी हूँ



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Tuesday, March 9, 2010

यह एक दिन




हर वर्ष आता है
या शायद
लाया जाता है
यह दिन ,
आंकड़ों को टटोलते हुये
कभी कहता 1000 पर 945
कभी 33प्रतिशत
कभी 18 प्रतिशत ,
इनमें हेरफेर से
हो जाता है
क्या समाज में परिवर्तन ?
बदल तो नही जाती
मानसिकता ,
प्रकृति की प्रकृति
और कुछ कुछ नियति,
कम तो नही होती
रोज की घटनायें
प्रताड़ना
गली सड़क पर
उछलते फिकरे
बसों में हाथों की हरकतें
भीड़ में ठेलमठेल
मां से शुरु होकर
बहन तक जाती गालियां
लड़कियों की पाबंदी
बचपन से स्त्री बनने का दबाव
और नुमाइश लड़की की
कुछ लोगों के सामने
जो आखिर पुरुष बन
तय करता है
उसका भविश्य
अपनी शर्तों पर
रिवाजों की दुहाई देकर !
सदियों की मानसिकता ही तो
कायम रखता है ,
कितनी ही उचाईयां छूकर भी
समाज की
प्रश्नवाचक दृष्टि
वक्रता कम नही होती
वह तीक्ष्ण होकर
कसौटियों के कांटे
और बिछाकर कहता
अब!
पार होकर
दिखाओ तो जानें!
..............किरण राजपुरोहित नितिला

Saturday, March 6, 2010

हे नर क्यों आज भी इतने कमजोर हो तुम

क्यों आज भी इतने कमजोर हो तुम
कि नारी को हथियार बना कर
अपने आपसी द्वेषो को निपटाते हो
क्यों आज भी इतने निर्बल हो तुम
कि नारी शरीर कि
संरचना को बखाने बिना
साहित्यकार नहीं समझे जाते हो
तुम लिखो तो जागरूक हो तुम
वह लिखे तो बेशर्म औरत कहते हो
तुम सड़को को सार्वजनिक शौचालय
बनाओ तो जरुरत तुम्हारी है
वह फैशन वीक मे काम करे
तो नंगी नाच रही है
तुम्हारी तारीफ हो तो
तुम तारीफ के काबिल हो
उसकी तारीफ हो तो
वह "औरत" की तारीफ है
तुम करो तो बलात्कार भी "काम" है
वह वेश्या बने तो बदनाम है

हे नर
क्यों आज भी इतने कमजोर हो तुम


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Friday, March 5, 2010

अनैतिकता बोली नैतिकता से

अनैतिकता बोली नैतिकता से
मंडियों , बाजारों और कोठो
पर मेरे शरीर को बेच कर
कमाई तुम खाते थे
अब मै खुद अपने शरीर को
बेचती हूँ , अपनी चीज़ की
कमाई खुद खाती हूँ
तो रोष तुम दिखाते हो
मनोविज्ञान और नैतिकता
का पाठ मुझे पढाते हो
क्या अपनी कमाई के
साधन घट जाने से
घबराते हों इसीलिये
अनैतिकता को नैतिकता
का आवरण पहनाते हो
ताकि फिर आचरण
अनैतिक कर सको
और नैतिक भी बने रह सको


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Thursday, March 4, 2010

तुम्हारे अस्तित्व की जननी हूँ मै

पार्वती भी मै
दुर्गा भी मै
सीता भी मै
मंदोदरी भी मै
रुकमनी भी मै
मीरा भी मै
राधा भी मै
गंगा भी मै
सरस्वती भी मै

लक्ष्मी भी मै
माँ भी मै
पत्नी भी मै
बहिन भी मै
बेटी भी मै
घर मे भी मै
मंदिर मे भी मै
बाजार मे भी मै

"तीन तत्वों " मे भी मै
पुजती भी मै
बिकती भी मै
अब और क्या
परिचय दू
अपने अस्तित्व का
क्या करुगी तुम से
करके बराबरी मै
जब तुम्हारे
अस्तित्व की
जननी हूँ मै
तुम जब मेरे बराबर
हो जाना तब ही
मुझ तक आना




पार्वती माता का प्रतीक
दुर्गा शक्ति का प्रतीक
सीता , मंदोदरी, रुकमनी भार्या का प्रतीक
मीरा , राधा प्रेम का प्रतीक
गंगा , पवित्रता का प्रतीक
सरस्वती , ज्ञान का प्रतीक
लक्ष्मी , धन का प्रतीक
बाजार , वासना का प्रतीक
तीन तत्व , अग्नि , धरती , वायु

Wednesday, March 3, 2010

अघोषित अपराधी - बेटी का पिता!

वह दुनियाँ का सबसे
निरीह प्राणी है -
अपने जिगर के टुकड़े को 
साथ लिए लिए
उसके बचपन से 
जवानी तक
घूमता रहा.
कभी पढ़ाई, कभी कोचिंग,
औ' फिर कभी 
एडमिशन, कम्पटीशन, जॉब सर्चिंग
हाथ पकड़े घूमता रहा,
जब तक
उसके पैरों तले ठोस जमीं न मिली.
उस मुकाम पर पहुंचा कर
फिर खुद का सफर,
एक नया सफर
अपनी उम्र के तीसरे पड़ाव पर,
दर-दर भटका 
अब बारी थी
बेटी के ब्याहने की.
कहीं दरवाजा खोला गया,
कहीं एक गिलास पानी मिला 
औ' कहीं
बंद दरवाजे से आवाज आई
घर में कोई नहीं है,
फिर कभी आइयेगा.
कई कई दरवाजों की
धूल छानकर
पसीना पोंछते हुए वापस 
घर में आकर सांस ली.
पत्नी पानी का गिलास
हाथ में लेकर
चेहरा पढ़ने की कोशिश में
हताश चेहरा 
अपनी कहानी खुद
बयां कर रहा होता.
फिर दो चार दिन में
नए पते लेकर
फोटो और बायोडाटा के साथ
घर घर जाना
कोई पूछता--
आपका कितने का संकल्प है?
कितना खर्च करने की सोची है?
कुछ और बढ़ जाइये तो?
इतने ?? में तो 
मैं बात ही नहीं करता.
अभी इससे अधिक देनेवालों  को
मैं ने बुलाया ही नहीं है.
अजी पैसे नहीं है,
क्या मेरा ही घर बचा है?
कुछ रिश्तेदारों की सलाहें
पहले ही कहा था कि 
अधिक मत पढ़ाइये 
जल्दी शादी कर दीजिये.
कुछ के व्यंग्य भरे कटाक्ष
उनकी अपनी उपलब्धियों की गाथा
बिना मांगी सलाह
'मेरी मानिये तो
अब नीचे उतर आइये
बस देखिये 
लड़का ठीक ठाक हो,
बेटी को कमा रही है
दोनों आराम से रहेंगे.'
वह निरीह प्राणी
रात की नींद 
गिरवी रखकर
तारों को निहारता
सोचता है --
क्या गुनाह किया?
बेटी को जन्म दिया?
उसको उच्च शिक्षा दिलाई?
या उसके लिए
सुयोग्य वर की कामना की?
सब अनुत्तरित प्रश्न
उसको निरीह बना रहे हैं
क्योंकि

एक अघोषित अपराधी,
जिसका अपराध अक्षम्य है.
इस समाज की अदालत में
गुनाहगार बना खड़ा है.
क्योंकि वह एक 
बेटी का पिता है.