सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Wednesday, March 9, 2011

कविता पढिये जवाब खोजिये " नारी "

ये कविता अतिथि कवि कि पोस्ट के तेहत पोस्ट कर रही हूँ । कविता चैतन्य आलोक जी कि हैं
कविता के अंत मै एक प्रश्न हैं जो लाल अक्षरों से हैं । जवाब जितने मिलेगे उतना बढ़िया होगा । मुझे कविता ने छुआ । मेरा जवाब भी हैं पर सबसे अंत मै आयेगा । सो कविता पढिये जवाब खोजिये

नारी




वो मेरी तुमसे पहली पहचान थी
जब मैं जन्मा भी न था
मैं गर्भ में था तुम्हारे
और तुम सहेजे थीं मुझे.

फिर मृत्यु सी पीड़ा सहकर भी
जन्म दिया तुमने मुझे
सासें दीं, दूध दिया, रक्त दिया तुमने मुझे.

और जैसे तुम्हारे नेह की पतवार
लहर लहर ले आयी जीवन में

तुम्हारी उंगली को छूकर
तुमसे भी ऊँचा होकर
एक दिन अचानक
तुमसे अलग हो गया मैं.

और जिस तरह नदी पार हो जाने पर
नाव साथ नहीं चलती
मुझे भी तुम्हारा साथ अच्छा नहीं लगता था
तुम्हारे साथ मैं खुद को दुनिया को बच्चा दिखता था.

बचपन के साथ तुम्हें भी खत्म समझ लिया मैने
और तब तुम मेरे साथ बराबर की होकर आयीं थीं..

बादलों पर चलते
ख्याब हसीं बुनते
हम कितना बतियाते थे चोरी के उन लम्हों में
दुनिया भर की बातें कर जाते थे

मै तुम पर कविता लिखता था
खुद को “पुरूरवा”
तुम्हें “उर्वशी” कहता था.

और जैसा अक्सर होता है
फिर एक रोज़
तुम्हारे “पुरूरवा” को भी ज्ञान प्राप्त हो गया
वो “उर्वशी” का नहीं लक्ष्मी का दास हो गया

मेरी कीमत लगी दहेज़ के बाज़ार में
और बिक गया मैं
ढेर सारे रुपयों के लिये

तुम फिर आयीं मेरे जीवन में
मैने फिर तुम्हारा साथ पाया

वह तुम्हारा समर्पण ही था
जिसने चारदीवारी को घर बना दिया
पर व्यवहार कुशल मैं
सब जान कर भी खामोश रह गया

और उन्मादी रातों में
तुम जब नज़दीक होती
यह “पुरूरवा”, “वात्सायन” बन जाता
खेलता तुम्हारे शरीर से और रह जाता था अछूत
तुम्हारी कोरी भावनाऑ से

सोचता हूं ?
इस पूरी यात्रा में
तुम्हें क्या मिला
क्या मिला

एक लाल
और फिर यही सब .....

और जब तुमने लाली को जना था
तो क्यों रोयीं थीं तुम
क्यों रोयीं थीं???

7 comments:

vandana gupta said...

एक ही जवाब है इसका
सिर्फ़ इसलिये कि कल फिर यही दोहराया जायेगा।

manasvinee mukul said...

सच ही तो है कि नारी ही नारी को समझ नहीं पाती.आज भी महिलाएं मां के रूप में पहली बार एक 'लाल' के मुख से मां सुनना पसंद करती हैं 'लाली ' के नहीं .नारियों की ये ही विडम्बना है कि वे खुद ही खुद की दुश्मन बन जाती हैं .वैसे एक अर्थ और ज़हन में उभरता है कि शायद वह रोई थी क्योकि अवचेतन में कहीं डर था कि उसकी लाली भी उसी कौम से है जिसे लोग नारी कहते हैं . अति सुन्दर रचना !इसे पोस्ट करने के लिए साधुवाद !
by
manasvinee mukul
http://naarihun.blogspot.com

Shalini kaushik said...

वंदना जी ने ठीक ही कहा है .कोई माँ नहीं चाहती की उसकी संतान के साथ वही सब दोहराया जाये जो उसने सहा है पर बेटी की माँ जानकर भी यह रोक नहीं सकती इसलिए बेटी के जन्म पर सिर्फ आंसू बहा कर रह जाती है .

Shikha Kaushik said...

शालिनी जी से पूर्णतया सहमत.

डा.मीना अग्रवाल said...

मैं भी इस बात से सहमत हूँ क्योंकि माँ डरती है कि इतिहास पुनः दोहराया न जाय। फिर भी यह प्रश्न तो प्रश्न ही बना रहेगा। मैं तो स्वयं से भी यही प्रश्न अनेक बार पूछती हूँ--

जाने नदिया यह सपनों की जम क्यों गई
जाने मुस्कान होठों पे थम क्यों गई
जन्म बेटी का होना अशुभ क्यों हुआ
किससे पूछूँ कि माता सहम क्यों गई?
पर मैं यह भी मानती हूँ कि निराशा में आशा भी होती है और एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब समाज में स्थिति बदलेगी। इसलिए मैं सभी माँओं से कहूँगी--

घटा बंजरों को भिगोती है देखो
समुंदर की सीपी में मोती है देखो
निराश इतनी होकर न बैठो सहेली
विकलता में आशा भी होती है देखो।

सुंदर रचना के लिए बधाई।

सम्वेदना के स्वर said...

कविता के अंत में प्रश्न के पहले एक विड़म्बना भी है नारी की, “बदले में तुम्हे क्या मिला, एक लाल, और फिर वही सब?” ....

एक सुझाव के तौर पर बात कहना चाहूंगा कि : सारा अस्तित्व पाज़िटिव-नेगेटिव, यिन-यान, शिव-शक्ति, मैटर–एंटी मैटर इसी द्वैत से बना है, जिस तरह पुरुष चित्त का आत्यांतिक स्वभाव आक्रमण है उसी तरह स्त्री चित्त का आत्यांतिक स्वभाव समर्पण है और शायद अपने इसी समर्पण भाव के कारण स्त्री ने अपनी सत्ता छिन जाने दी।

आज के समय में, नारी के लिये बहुत जरुरी है कि वो संसद में 50% आरक्षण को फिल्हाल अपना राजनैतिक मिशन बना ले। राजनीति अब सारे अर्थतंत्र और सामाजिक ताने-बाने को चलाती है, इस कारण स्त्री को सबसे पहले सत्ता में अपनी भागीदारी हासिल करनी होगी, जिसके बाद परिवार और समाज में उसकी पकड़ धीरे धीरे अपने आप मज़बूत हो जायेगी।

पूरी पृथ्वी पर जो विक्षिप्ता है वह पुरुष की मनमानी के कारण ही है, स्त्री को देश और समाज के हित में लिये जाने वाले निर्णयों में अपनी सशक्त भूमिका में आना ही चाहिये।

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) said...

ये मानसिकता भी बनी बनायी है खुद जिसे नारियों ने अपने इर्द गिर्द पाल भी रखा है और उसे निभाती भी आई है एक परम्परा के तौर पर .न जाने क्यों औरत खुद लुट जाने में क्यों इतना गर्व महसूस करती है चाहे वो माँ बन बेटी बन पत्नी बन कर .....इनकी इसी अवधारणा ने अब तक के समाज में इनकी सिथिति को बदतर कर रखा है .किसी पुरुष के मुख से कम ही सुना होगा ,पर नारियां ही खुद को एक बेटी की माँ से ज्यादा बेटा की माँ कहलाने में ज्यादा गौरवान्वित महसूस करती हैं .......ऐसी कई अर्धविकसित मानसिकताएं हैं जिसके कारण नारी खुद भुत्भोगी हैं.. बस कुछ सोंच को बदलने की आवश्यकता है फिर लाल के साथ लाली के ज़न्म पर पर भी नारियां रोयेंगी नहीं मुस्कायेंगी ...........