सामाजिक कुरीतियाँ और नारी , उसके सम्बन्ध , उसकी मजबूरियां उसका शोषण , इससब विषयों पर कविता

Tuesday, April 29, 2008

बन्धन


तुम पुरुष हो इसलिए तोड़ सके सारे बंधनों को
मैं चाह के इस से मुक्त ना हो पाई
रोज़ नापती हूँ अपनी सूनी आँखो से आकाश को
चाह के भी कभी मैं मुक्त गगन में उड़ नही पाई

ना जाने कितने सपने देखे,कितने ही रिश्ते निभाए
हक़ीकत की धरती पर बिखर गये वह सब
मैं चाह के भी उन रिश्तो की जकड़न तोड़ नही पाई

बहुत मुश्किल है अपने इन बंधनों से मुक्त होना
तुम करोगे तो यह साहस कहलायेगा .....
मैं करूँगी तो नारी शब्द अपमानित हो जाएगा ...



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बदले हुए युग की सीता और अहिल्या

क्यों बनू अहिल्या मै
शापित जीवन क्यों मै काँटू
बन कर इक शिला
जीवन अगर मेरा शापित है
तो भी क्यों न उसे जीउँ मै
क्यों इंतज़ार करू मै
किसी राम के आगमन का
नहीं मै अहिल्या नहीं बनूगी
युग अब बदल गया है
मर्यादा पुरुषोतम
राम नाम
कही खो गया है
जो पत्थर मे ड़ाल सकें प्राण
और शाप ना देना मुझको
ना लेना अब कोई परीक्षा
क्योकि युग बदल गया हैं
अब ऐसी ग़लती न करना
बदले हुए युग की सीता
और अहिल्या ने अब

लक्ष्मण रेखा अपने
चारो और खीच ली हैं
जहाँ आकर तुम्हारे
शाप की परिधि समाप्त हो जाती है
और तुम्हारे भस्म होने की
सीमा शुरू हो जाती हैं
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Monday, April 28, 2008

फिर उठी है टीस


फिर उठी है टीस कोई
चिर व्यथित मेरे हृदय में
उठ रहे हैं प्रश्न कितने
शून्य पर
- नीले- निलय में

फिर पराजित सी है शक्ति
फिर लुटा विश्वास है
चोट फिर दिल पर लगी है
फिर चुभी एक फाँस है

फिर शकुन अपमानिता है
दम्भी नर के सामने
द्रोपदी फिर से खड़ी है
कायरों के सामने

टूटा है विश्वास फिर से
राधा का इक श्याम से
जल रहे हैं नेत्र मेरे
नारी के अपमान से

नारी तू तो शक्ति है
भय हारिणी और पालिनी
मातृ रूपा स्वयं है तू
स्नेह छाँह प्रदायिनी

भूलकर अस्तित्व अपना
प्रेम के मोह- जाल में
माँगती उससे सहारा
जो स्वयं भ्रम- जाल
में

ओ शकुन! अब जान ले
दुष्यन्त की हर चाल को
द्रोपदी पहचान ले
नर दम्भ निर्मित जाल को

आत्मशक्ति को जगा और
फिर जगा विश्वास को
आंख का धुँधका मिटा ले
जीत ले संसार को

खोज मत अब तू सहारा
कायरों की भीड़ में
अब उड़ा दे मोह पंछी
जो छिपा है नीड़ में

कर अचंभित विश्व को
अपने अतुल विश्वास से
स्वयं-सिद्धा बन बदल दे

विश्व को विश्वास से

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Sunday, April 27, 2008

कुछ त्रिपदम नारी के नाम

आत्मशक्ति
अभिभूत
करें पुरुष को
नारी सुलभ गुणों से
शक्ति बनें हम नवयुग की
सम्मानित होकर पुरुष से
रूप नया दें समाज को
अपनी आत्मशक्ति से
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कुछ त्रिपदम नारी के नाम

नर से नारी
दो मात्रा से आगे जो
स्नेही माँ देवी

सृजन-सृष्टा
गर्भगृह समृद्ध
सौभाग्यशाली

भावुक नारी
स्नेही ममतामयी
संवेदनशील

गरिमामयी
धरा पे स्वर्ग लाए
शक्तिशालिनी

मीनाक्षी

ये कविता मीनाक्षी की हैं , रंजू केवल सूत्रधार हैं
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Friday, April 25, 2008

एक और संवाद

अनैतिकता बोली नैतिकता से
मंडियों , बाजारों और कोठो
पर मेरे शरीर को बेच कर
कमाई तुम खाते थे
अब मै खुद अपने शरीर को
बेचती हूँ , अपनी चीज़ की
कमाई खुद खाती हूँ
तो रोष तुम दिखाते हो
मनोविज्ञान और नैतिकता
का पाठ मुझे पढाते हो
क्या अपनी कमाई के
साधन घट जाने से
घबराते हों इसीलिये
अनैतिकता को नैतिकता
का आवरण पहनाते हो
ताकि फिर आचरण
अनैतिक कर सको
और नैतिक भी बने रह सको

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Thursday, April 24, 2008

आधुनिक नारी


आधुनिक नारी
बाहर से टिप-टाप
भीतर से थकी-हारी ।
सभ्य,सुशिक्षत,सुकुमार
फिर भी उपेक्षा की मारी।
समझती है जीवन में
बहुत कुछ पाया है
नहीं जानती-
ये सब छल है, माया है।
घर और बाहर दोनो में
जूझती रहती है।
अपनी वेदना मगर
किसी से नहीं कहती है ।
संघर्षों के चक्रव्यूह
जाने कहाँ से चले आते हैं ?
विश्वासों के सम्बल
हर बार टूट जाते हैं ।
किन्तु उसकी जीवन शक्ति
फिर उसे जिला जाती है ।
संघर्षों के चक्रव्यूह से
सुरक्षित आजाती है ।
नारी का जीवन
कल भी वही था-
आज भी वही है ।
अन्तर केवल बाहरी है ।
किन्तु
चुनौतियाँ हमेशा से
उसने स्वीकारी है ।
आज भी वह माँ-बेटी
तथा पत्नी का कर्तव्य
निभा रही है ।
बदले में समाज से
क्या पा रही है ?
गिद्ध आधुनिक नारी
बाहर से टिप-टाप
भीतर से थकी-हारी ।
दृष्टि आज भी उसे
भेदती है ।
वासना आज भी
रौंदती है ।
आज भी उसे कुचला जाता है ।
घर,समाज व परिवार में
उसका देने का नाता है ।
आज भी आखों में आँसू
और दिल में पीड़ा है ।
आज भी नारी-
श्रद्धा और इड़ा है ।
अन्तर केवल इतना है
कल वह घर की शोभा थी
आज वह दुनिया को महका रही है ।
किन्तु आधुनिकता के युग में
आज भी ठगी जा रही है ।
आज भी ठगी जा रही है ।


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Wednesday, April 23, 2008

एक दिन तो मुझे अपनी पहचान मिल जायेगी ..

हर रोज़ खुद से यही प्रश्न मैं कई बार करती हूँ
कौन हूँ मैं ?क्या पहचान है मेरी अब भी यहाँ
क्या आज भी मैं ....
अग्नि परीक्षा देती हुई हूँ कोई सीता
या आज भी सिर्फ़ भोग्या ही कहलाती हूँ

हूँ मैं ही सृजनहार भी ,...
वही मैं दुर्गा बन के कहर भी ढाती हूँ
पर आज भी मेरा गर्भ में आहट लेना
क्यों चिंता का विषय बन जाता है
क्यों आज भी मेरा बचपन
"निठारी का किस्सा " बन जाता है

कभी बना के सती मुझे
तिल तिल करके जला देते हैं
कभी मॉडर्न आर्ट के बहाने
मेरी देह सज़ा देते हैं

कितने ही ऐसे अनसुलझे सवाल
दिल मैं हलचल मेरे मचा देते हैं
बीतते पल क्यों वही फ़िर से
कहानी पुरानी दोहरा लेते हैं ?

एक दिन तो मेरे बिखरे वजूद को
पहचान अपनी मिल जायेगी
आंखों में आजादी के प्रतिबिम्ब को
यह दुनिया समझ और देख पाएगी !!
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Tuesday, April 22, 2008

वाह !! कितनी ज्वलंत हैं आज , "कल" की "भोली" नारी

नारी घूँघट मे दबी ढकी
लजाती सकुचाती
सिमिटी सकुचाई
शांत , मौन
तब कुछ ना बोली
जब दान हो कर
पिता से दहेज़ लेकर
चली पीया के संग
नारी धन कमाती
स्वाबलंबी , नौकरी करती
पति के संग आती जाती
सुरक्षित महसूसती
तब कुछ ना बोली
नारी ममता को अनुभाती
सामाजिक गरिमा पाती
तब कुछ ना बोली
और जब सब पा लिया
तो आवाहन किया
समय हैं
अब आत्म मंथन का
समाज मे फैली कुरीति
कन्यादान क्यों ? पर सोचने का
समाज मे पत्नी पर हो रहे
अत्याचार के खिलाफ
आवाज उठाने का
अपने अधिकारों के प्रति
सचेत होने का
आवाहन करती , शोध करती
भाषण देती
वाह !! कितनी
ज्वलंत हैं आज ,
"कल" की " भोली" नारी

क्योकी अब समय हैं
औरो को समझाने का ,
नियमावली दूसरो के लिये
नई बनाने का
अपनी कूटनीती को
आवरण विवशता
का पहनाने का


ये कविता उन नारियों के ऊपर हैं जो समय पर सब सुख उठाती हैं पर फिर भी हमेशा दुखी दिखती हैं और बाकी सब महिलाओ को जागरूक होने के कहती हैं । इसी दोहरी जिन्दगी जीती महिलाओ के कारण ही स्त्री जागरूकता पुरुषो मे मजाक का विषय होती हैं । क्या अच्छा हो अगर दूसरो को सिखाने की जगह हम सब अपने अंदर जागरूकता पैदा करे , सही समय पर अपनी लड़ाई ख़ुद लडे और जो नियम हम दूसरो के लिये बनाये पहले उनपर ख़ुद चले । बदलाव अपने मे लाये ।

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित
!

रावण रोता है...

रावण ने सीता का अपहरण किया,
कैद रखा वाटिका में,
पर तृण की ओट का मान रखा...
अपने ही नाश यज्ञ में उसने,
ब्राह्मण कुल का धर्म निभाया,
राम के हाथों प्राण तजे,
सीधा स्वर्ग को प्राप्त किया...
जाने कितने युग बीते!!!!
आज भी रावण को जलाते हैं,
और सत्य की जीत मनाते हैं !
पर गौर करो इस बात पे तुम,
गहराई से ज़रा मनन करो,
रावण को वे ही जलाते हैं,
जो राम नहीं कहलाते हैं,
ना ही रावण के चरणों की,
धूल ही बन पाते हैं...
जाने कितनी सीताओं का,
वे रोज़ अपहरण करते हैं...
ना रखते हैं किसी तृण का मान,
बन जाते हैं पूरे हैवान ...
ना राम का आना होता है ,
ना न्याय की आंखें खुलती हैं,
सीता कलंकिनी होती है ,
रावण भी फूट के रोता है!!!!!

Sunday, April 20, 2008

मेरी आत्मजा


मेरी आत्मजा
मेरा प्रिय अंग
आज देती हूँ तुम्हें
सीखें चन्द

नारी समाज की रीढ़
सृष्टि का श्रृंगार है
उसकी कमजोरी
सृष्टा की हार है

अन्याय को सहना
स्वयं अन्याय है
किन्तु परिवार में
त्याग अपरिहार्य है

तू धीर-गम्भीर और
कल्याणी बनना
किसी को दुःख दे
ऐसे सपने मत बुनना

वासना की दृष्टि को
शोलों से जलाना
कभी निर्बलता से
नीर ना बहाना

हृदय से कोमल
सबका दुःख हरना
अन्यायी आ जाए तो
शक्ति रूप धरना
लड़की हो इसलिए
सदा सुख बरसाना
किन्तु बिटिया--
- बस लड़की ही
मत रह जाना-
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Saturday, April 19, 2008

अभिलाषा

गर्भ कोष की गहराई में
एक बीज आकार ले रहा
हौले हौले जोड़ रहा है
सवेदना की पंखुड़ियों को
खूबसूरत कली पर अपनी
किसी की नज़र न पड़े
इसलिए अंधेरे के जाल बुनता है
पता नही कैसे खबर मिलती है उनको,
शायद महक पहुँचती होगी
झुंड में आजाते है मिलकर
नोचने ,खरोचने को
असंख्य वेदना,दबी चीख
और लहू की नदी बहती है
खून की होली खेलने का आनंद
हर चेहरे पर साफ लिखा
गर्भ खामोश,एक सिसकी भीं नही भर सकता,
एक ही अभिलाषा थी मन में
उसका फूल खिलता,पूरे जहाँ को चमन बनाता
वो लहू का लाल रंग ही
अनगिनत खुशिया लाता
मगर उसने सोच लिया है अब
और नही ज़ुल्म सहेना
बंद कर लिए है अपने दरवाज़े
तब तक नही खुलेंगे
जब तक अपनी बेजान पंखुड़ियों को
जीवन दान देकर सशक्त चमन का
निर्माण न कर ले....

© 2008-09 सर्वाधिकार सुरक्षित!

कब तक मेरे किये हुए कामो को मेरी उपलब्धि नहीं माना जाएगा ??

देश को आजाद हुए , होगये है वर्ष साठ
पर आज भी जब बात होती है बराबरी कि
तो मुझे आगे कर के कहा जाता है
लो ये पुरूस्कार तुम्हारा है
क्योंकी तुम नारी हो ,
महिला हो , प्रोत्साहन कि अधिकारी हो
देने वाले हम है , आगे तुम्हे बढाने वाले भी हम है
मजमा जब जुडेगा , फक्र से हम कह सकेगे
ये पुरूस्कार तो हमारा था
तुम नारी थी , अबला थी , इसलिये तुम दिया गया
फिर कुछ समय बाद , हमारी भाषा बदल जायेगी
हम ना सही , कोई हम जैसा ही कहेगा
नारियों को पुरूस्कार मिलता नहीं दिया जाता है
दिमाग मे बस एक ही प्रश्न आता
और
कब तक मेरे किये हुए कामो को मेरी उपलब्धि नहीं माना जाएगा ??
और
कब तक मेरे नारीत्व को ही मेरी उपलब्धि माना जायगा ??

Friday, April 18, 2008

सम्मानित , अपमानित होती हूँ मै

सम्मानित , अपमानित होती हूँ मै
क्योंकी मै स्त्री हूँ , माँ हूँ , बहिन हूँ , पत्नी हूँ
उनसे तो मै फिर भी लाख दर्जे अच्छी हूँ
जिनका कोई मान समान ही नहीं हैं
जब भी
सम्मानित , अपमानित होती हूँ मै
जिन्दगी की लड़ाई मै , आगे ही बढ़ी हूँ
औरो से उपर ही उठी हूँ
नहीं तोड़ सके हैं वह मेरा मनोबल
जो करते है सम्मानित , अपमानित मुझे
क्योंकी मैने ही जनम उनको दिया है
दे कर अपना खून जीवन उनको दिया है
दे कर अपना दूध बड़ा उनको किया है
नंगा करके मुझे जो खुश होते है
भूल जाते है उनके नंगेपन को
हमेशा मैने ही ढका है